सम्पादकीय

असर संपादकीय: दिशा और दृष्टि (राजनीति सत्ता)

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी की कलम से…

 

एके शौरी की कलम से

सत्ता और राजनीति एक दूसरे के पर्याय हैं। सत्ता होगी तो राजनीति होगी और राजनीति होगी तो सत्ता हासिल करने के लिए। सत्ता चाहे परिवार में हो, कबीले में हो, छोटी जगह में हो, राज्य में हो, उसका अपना ही एक तरह का नशा होता है। दरअसल, हर कोई अपनी क्षमता और संसाधनों के अनुसार नियंत्रित करना चाहता है। यहां तक कि परिवार का मुखिया भी चाहता है कि घर में सब कुछ उसकी आज्ञा के अनुसार हों और घर की महिला भी चाहेगी कि घर की गतिविधियां उसकी आज्ञा और इच्छा के अनुसार हों। परिवार का मुखिया पुरुष होने के कारण, शारीरिक शक्ति और संसाधनों से युक्त एक प्रभावशाली व्यक्तित्व होता था (हालांकि अभी भी है) और परिवार में उसकी हुकूमत चलती थी। चूंकि एक परिवार अकेले नहीं रह सकता, इसलिए सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत सुरक्षा की दृष्टि से कई परिवारों को एक साथ रहने की आवश्यकता थी और वे एक ऐसी जनजाति का हिस्सा बन गए, जिसके अपने रीति-रिवाज, खान-पान, नियम थे। सबसे मजबूत परिवार का मुखिया जनजातियों का मुखिया होता था और जनजातियों का समूह सबसे मजबूत और शक्तिशाली जनजाति वाले को अपना नेता चुनता था। इसका विस्तार राज्य या राष्ट्र में हुया और अगर हम देखें तो पायेंगे कि सबसे बड़े संसाधनों, सैन्य और आर्थिक शक्ति और निश्चित रूप से सक्षम जन शक्ति वाला देश सबसे मजबूत है। सत्ता ऐसे हाथों में ही होती है, केवल कैनवास बड़ा होता है।
राजनीति
पहले ताकत से, लड़ाई जीतकर, विरोधियों को शारीरिक रूप से खत्म करके सत्ता पर कब्ज़ा किया जाता था और आजकल साध्य वही है, हालाँकि साधन बदल गए हैं। आधुनिक समय में हम कहते हैं कि असली शक्ति लोगों के पास है जो मतदान करके नेता को बदल सकते हैं, वास्तव में सत्ता हमेशा कुछ हाथों में रही है और रहेगी जो सत्ता के खेल को नियंत्रित करते है। हालाँकि समय-समय पर चुनाव होते रहते हैं, लेकिन हम जानते हैं कि ऐसे कई कारक हैं जिनका राजनीतिक दल सत्ता में रहने के लिए उपयोग या हेरफेर करते हैं। वे धार्मिक कार्ड खेलते हैं, मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए उनकी जाति और समुदाय के अनुसार उम्मीदवारों का चयन करते हैं, यह सुनिश्चित करते हैं कि डॉन प्रकार के लोग चुनाव लड़ें ताकि वे बल का प्रयोग कर सकें और लोग डर के कारण उन्हें वोट दे सकें. इस तरह के कई कारक हैं जिनकी सक्रिय रूप से योजना बनाई जाती है और चुनाव के समय उनका उपयोग किया जाता है। मुफ़्त चीज़ों की घोषणा हमारे देश में सभी राजनीतिक दलों का एक और पसंदीदा उपकरण बन गया है। इसलिए, लोकतंत्र में सत्ता हालांकि जनता के पास होती है लेकिन परोक्ष रूप से सत्ता शक्तिशाली लोगों के पास ही होती है। ऐसा होना लाजिम है क्योंकि शासक कुछ चुने हुए होंगे। समस्या तब शुरू होती है जब सत्ता पूरी तरह से भ्रष्ट हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप सत्ता का दुरुपयोग, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजा वाद और पक्षपात बढ़ता है। कानून का शासन कागजों पर ही बना रहता है और हमेशा सत्ता में बने रहने की ख्वाहिश रखने वाले शासक वर्ग द्वारा सत्ता का दुरुपयोग लोगों से सत्ता पूरी तरह छीन लेता है। लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं और अगले चुनाव का इंतजार करते हैं लेकिन हर चुनाव में अलग-अलग हथकंडे अपनाए जाते हैं और सत्ता उन लोगों के पास चली जाती है जो वास्तव में इसके लायक नहीं हैं। यह बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार में बदल जाता है और लोगों का कल्याण एक साइड एजेंडा बन जाता है।
जन शक्ति
यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐसा न हो और सत्ता वास्तव में और व्यावहारिक रूप से केवल लोगों के पास ही रहे, एक संतुलन प्रणाली और अच्छी प्रथाओं को लागू करने की आवश्यकता है। प्रत्येक संगठन में प्रत्येक कर्मचारी का वार्षिक मूल्यांकन व् उसकी काम काज की समीक्षा होती है, उसी तरह राजनीतिक दलों के समय-समय पर प्रदर्शन मूल्यांकन के लिए एक तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। कुछ दशक पहले तत्कालीन सरकार द्वारा सामाजिक लेखा की शुरुआत की गई थी और इसका उपयोग सरकारी कार्यालयों का लेखा जोखा देखने के लिए किया जाता था। राजनीतिक दलों का भी सामाजिक ऑडिट होना चाहिए, उनके प्रदर्शन का मूल्यांकन करना चाहिए और देखना चाहिए कि उनके चुनावी घोषणापत्र में किए गए कितने वादों को पूरा किया गया है। संवैधानिक निकायों को पूरी तरह से स्वतंत्र और मुक्त होना होगा, और यह देखने के लिए एक प्रहरी के रूप में पूरी तरह से काम करना होगा कि समाज में कानून का शासन है। इसके लिए मतदाताओं को सुशिक्षित, साक्षर एवं जागरूक होना होगा। उन्हें खुद को क्षुद्र राजनीति, जाति, पंथ और धार्मिक स्तर से ऊपर उठाना होगा और तर्कसंगत इंसान बनना होगा और इन सबके लिए प्रारंभिक चरण में बहुत बड़ी भूमिका माता-पिता के साथ-साथ शिक्षकों की भी होती है जो हर समाज व् राष्ट्र के चरित्र निर्माता होते हैं। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, समाज के तथाकथित आदर्शों को पितातुल्य बनना पड़ता है, सामाजिक चिंतक, लेखक और विचारकों को आगे आना पड़ता है। किसी राष्ट्र के चरित्र का निर्माण और पुनर्निर्माण बहुत कठिन है लेकिन असंभव नहीं है। हमारे देश में हम संकीर्ण सोच और स्वार्थ पूर्ण निम्न मानसिकता के गुलाम बन गये हैं और अपराधी राजनेताओं के हाथों का खिलौना बन गये हैं। हमने उन्हें सत्ता सौंप दी है और केवल दर्शक बने हुए हैं।’ समय की मांग है कि जन शक्ति को मजबूत किया जाये।

Deepika Sharma

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