रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी
श्री राम के दार्शनिक विचारों को जैसे जैसे हम जानते जायेंगे, हमें इस बात का ज्ञान होता जाएगा कि उन्हें क्यों मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से सम्बोधित किया जाता है। एक कुशल राज प्रबन्धक होने के साथ श्रीराम एक परिपक्व सोच व विचारधारा भी रखते थे। जीवन मूल्यों पर उनकी सोच तथा कुछ और गहन विषयों पर उनके विचार जानने का प्रयास करते हैं।
अहंकार
जब श्रीराम वानर सेना संग सागर किनारे पहुंचे तो विशाल सागर को देख कर वे सोच में पड़ गये कि इसे कैसे पार किया जा सकता है। उन्होंने नील को आदेश दिया कि वो थोड़ा आगे जा कर रास्ता देखे। श्रीराम स्वयं महेंद्र पर्वत की ओर बड़े और उसे पार करने के पश्चात समुंदर के बिलकुल करीब पहुँच गये, जहां पर सागर विकराल रूप से भयंकर शोर मचा रहा था। श्रीराम ने वानरों के साथ विचार- विमर्श किया और उनसे सुझाव भी माँगा कि इसे किस दिशा व स्थान से व कैसे पार करना होगा? वानर नेताओं ने सागर का अच्छी तरह से, अलग अलग दिशाओं से निरीक्षण किया। सागर की लहरें भारी झाग बनाती हुई बड़ी बड़ी लहरें बना रही थी, जिसे देख कर मन में डर भी आ रहा था। श्री राम ने पूर्व दिशा की ओर आसन लगाया और तीन दिन, तीन रात वहीं पर रुक कर सागर से आग्रह करते रहे कि वे उसे जाने का मार्ग दे। जब सागर पर कोई असर नहीं हुआ तो श्रीराम ने, जो कि दीनों के दीन हैं, लक्ष्मण को सम्बोधित कर अहंकार पर अपने विचार बताए जिनका वर्णन वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के २१वे सर्ग के १४-२१वे श्लोकों में इस तरह से किया गया है।
श्रीराम कहते हैं कि हे अहंकारी सागर! शांत रहना व सहनशीलता, दूसरों को माफ़ कर देना, निष्कपटता व वाणी से मीठा बोलना- ये तीन नेक स्वभाव जिन में हों, उन लोगों को ऐसा अकसर उनकी कमजोरी के रूप में देखा जाता है। यह संसार ऐसे मानव को आदर व सम्मान से देखता है जो कि अपनी स्वयं की ही प्रशंसा करता रहे और दूसरों पर अंधाधुंध दंड का डंडा चलाए। समझौते की नीति से इस संसार में प्रशंसा, प्रसिद्धी व युद्ध में विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। लक्ष्मण देखो, आज मैं इस सागर में रहने वाले मगरों को अपने तीरों से बेहाल कर दूंगा, समुंद्री अजगरों व अन्य विषैले जानवरों को देखना लक्ष्मण मैं किस प्रकार बाणों से भेद दूंगा। मैं इस सागर में रहने वाले सभी जीवों, मछलियों, सीपों आदि को सुखा दूंगा। यह सागर मुझे मेरी सहनशीलता के कारण कमज़ोर समझ रहा है। ऐसी सहनशीलता को मैं त्यागता हूँ। मेरे बाण इस को सुखा कर रास्ता बनायेंगे।
नियति का खेल
जब श्रीराम को कौशल्या व लक्ष्मण मना रहे थे कि वे वनवास न जाए उस समय श्रीराम, जिनको राज-पाट मिलने पर प्रसन्नता नहीं हुई थी और वन जाने के आदेश पर तनिक भी रंज नहीं हुआ था, उन्होंने इस समस्त घटनाचक्र को विधाता का विधान मानते हुए उनको सम्बोधित किया, उसे अयोध्याकाण्ड के २२वें सर्ग के १५-२५वे श्लोकों में इस तरह से बताया गया है।
श्रीराम कहते हैं कि हे सुमित्रा पुत्र! मुझसे राजपाट ले कर और मुझे वनवास में भेजने के पीछे नियति का ही हाथ है। कैकेयी, जो कि मेरी माता समान है, उनके मन में मुझे सता कर वन में भेजने का विचार तभी आ सकता है, अगर विधाता अर्थात नियति ऐसा चाहे और उससे ऐसा करवाना चाहे। क्योंकि मेरी माताओं ने तो कभी भी किसी तरह का पक्षपात नहीं किया और न ही कभी कैकेयी ने अपने पुत्र व मेरे बीच किसी प्रकार का भेद- भाव किया। इस लिए मैं नियति के सिवाय किसी और को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकता। जिसने मेरे पिता के मन में मेरे प्रति कटु विचार भर दिया जिससे वे मेरा राज तिलक रोक कर मझे वनवास में भेज दें। जो देखा न जा सके, वह निस्संदेह नियति का ही खेल है और इसे हम मानवों द्वारा बदला नहीं जा सकता। यह नियति ही है जिसके कारण ऐसा अनचाहा हो रहा है।
नियति को कोई कैसे चुनौती दे सकता है? जिस बात का किसी को आभास भी नहीं हो पाता और कर्म हो जाता है। खुशी और उदासी, डर और गुस्सा, लाभ व हानि, जन्म व मृत्यु जैसी अनेकों घटनाएँ जो एक मानव के साथ होती हैं, उन पर नियति का ही प्रभाव होता है। नियति के चक्र में आकर तो महान् ऋषि मुनि जिन्होंने घोर तपस्या की होती है व सात्विक जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं, वे भी काम-वासना व क्रोध का शिकार होकर सदमार्ग से भटक जाते हैं। किसी प्रण या वायदे को एक दम से छोड़ देना, वो भी बिना किसी कारण के, ऐसा नियति के अधीन हो कर ही किया जा सकता है। इसलिए लक्ष्मण मन में किसी प्रकार का दुःख न रखो। मेरे लिए मुझे प्रभुसत्ता मिलती है या वनवास, इन दोनों में वनवास अधिक महत्व रखता है, क्योंकि ऐसा होने से मैं चिंता मुक्त हो कर वैराग्य का जीवन जिऊँगा तथा मुझे अपने पिता के कैकेयी को दिए वचन की पालना करने का भी अवसर मिलेगा।