
रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी की कलम से….
जबाली को समस्त ब्राह्मणों में एक अनमोल रत्न माना जाता है। जब श्रीराम वन को प्रस्थान कर चुके और वहां रहने लगे तथा जब भरत, वशिष्ठ मुनि व अन्य जाने माने गणों के साथ उन्हें मनाने के लिए उनके पास पहुंचे, जाबली भी उन के साथ थे और श्रीराम को मनाने के लिए उन्होंने भी भरपूर प्रयास किया। जाबली एक नास्तिक थे और जीवन दर्शन के प्रति उनका दृष्टिकोण दूसरों से अलग होने के बावजूद उनके ज्ञान और बुद्धिमता पर किसी को भी किसी प्रकार का संदेह नहीं था। जीवन के प्रति उनका अपना एक अलग तरह का दृष्टिकोण था औरउन्होंने उसी दृष्टिकोण को सामने रखते हुए श्रीराम के सम्मुख अपने तर्क रखे। यह वो समय था जब श्रीराम अपने पिता राजा दशरथ की मृत्यु का समाचार सुन कर अत्यंत उदास व दुखी हो गए थे। भरत का वन में आने का एकमात्र ही लक्ष्य था कि वे किसी प्रकार से श्रीराम को मना कर अपने साथ अयोध्या वापिस ले चलें।
श्रीराम की मनोस्थिति को भली भांति समझते हुए जाबली ने न सिर्फ उन्हें पूर्णतया सान्त्वाना दी, बल्कि जीवन तथा मृत्यु की बारे में उन्हें सांसारिक व्याख्या भी देने की कोशिश की। जाबली ने श्रीराम को यह बात भी समझाने का यत्न किया कि श्रीराम को रीतिरिवाज़ निभाने में अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिय और एक राजकुमार की भांति अपने कर्तव्य पूरे करने हेतु वापिस अयोध्या चल कर राज-पाट संभालना चाहिए।

जबाली और श्रीराम के बीच काफी समय तक वाद-विवाद हुआ। जाबली ने श्रीराम को जो कुछ भी बताया, श्रीराम ने उनके सभी तर्क मानने से इनकार कर दिया। जाबली ने श्रीराम को क्या परामर्श दिए, उसे इस तरह से वाल्मीकि रामायण में बताया गया है।
जीवन के प्रति (अयोध्याकाण्डसर्ग४८, शलोक २,३,४, ५-६, ७,८,१०,११,१२,१३,१४,१५,१६,१७) जबाली और श्रीराम को सम्बोधित कर के कहते हैं कि हे रघु के वंशज, आपने हालाँकि बहुत अच्छा कहा है, लेकिन आपका निशचय एक साधारण मानव जैसा है, जो कि आप जैसे पुरुष द्वारा तो होना ही नहीं चाहिए जो इतनी नेक व पवित्र समझ से भरपूर हैं और जो रीति-रिवाजों के प्रति पूर्णतया समर्पित है। कोई भी किसी का मित्र नहीं है और किसी से अथवा किसी के द्वारा कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि मानव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसलिए, जो भी मानव किसी के भी साथ स्वंय को जुडा हुया महसूस करता है, यह सोच कर कि वो उसके माता- पिता हैं, तो, हे राम, ऐसे मानव को मूर्खता के पग पर चलने वाला ही समझना चाहिए, क्योंकि कोई भी किसी के साथ किसी तरह से भी संभंधित नहीं है। जिस प्रकार से, सुदूर गाँव की यात्रा करते समय, उस यात्रा के दौरान, कोई भी मानव अपनों से दूर चला जाता है तथा अगले दिन फिर यात्रा प्रारंभ करते हुए उस स्थान को पीछे छोड़ जाता है, उसी प्रकार, मानव के लिए, पिता, माता, घर और धन दौलत, एक अस्थायी ठिकाने की तरह हैं। हे श्रीराम, आप तो महान ककुस्था के वंशज हो, बुद्धिमान लोग इन सभी के साथ मोह पाश में नहीं पड़ते। अपने पिताश्री से उतराधिकार में प्राप्त अयोध्या की राजगद्दी को छोड़ते हुए कुमार्ग पर मत चलिए, ऐसा मार्ग जो कि कष्टदायक, पथरीला और काँटों से भरा हुआ है। आप, भरेपुरे व समृद्ध अयोध्या के सिंघासन पर विराज हों, जो कि एक ऐसी विधवा की तरह आपका रास्ता देख रहा है, जिसने शोक व हताशा में अपने बाल बखेर रखे हैं।

जबाली ने न सिर्फ दार्शनिक तर्क श्रीराम के सामने रखे बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी उनके सामने प्रस्तुत कर श्रीराम को अपने तर्कों से प्रभावित करने का यत्न किया। उन्होंने कहा कि राजा दशरथ न आपके कुछ थे और न ही आपका उनसे किसी प्रकार का कोई भी रिश्ता था। न तो राजा आप थे और न ही आप राजा ( दशरथ) हो। इसलिए, आप वही कीजिये जो करने का आप को परामर्श दिया जा रहा है। पिता तो एक जीव के होने का कारण मात्र होता है। कुछ विशेष रात्रि में एक माता के गर्भाशय में शुक्रानू के मिलन से एक जीव के अस्तित्व में आने का कारण मात्र हो जाता है। राजा अपने उसी गंतव्य स्थान को प्रस्थान कर चुके है जहाँ उन्हें जाना था, अर्थात उन पंच तत्वों को जिनसे उनका अस्तित्व हुआ था। मैं उन लोगों की ताड़ना करता हूँ जो धन दौलत व धार्मिक लालसायों के प्रति समर्पित होते हैं न कि दूसरे लोगों के प्रति (जो केवल अपनी ही लालसा पूर्ती में लगे रहते है)। इस जीवन में केवल धन पूर्ती व आमोद -प्रमोद में ही लगे रहने कारण उनका कष्ट सहने के उपरान्त अंत हो जाता है,अर्थात वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
यदि किसी एक मानव का खाया हुआ भोजन किसी अन्य मानव के शरीर में जा सकता है (ऐसा मानव जो कि दूसरी दुनिया में जा चुका हो, तो ऐसे में तो उन लोगों को भी श्राद्ध के तौर पर भोजन दिया जा सकता है, जो अपने घर से दूसरे स्थान के लिया यात्रा कर रहें हों, इस तरह से उनके लिए किसी तरह की खाद्य सामग्री ले जाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। हम सभी मानवों को, देवी देवताओं की आराधना करने, उन्हें भेंट स्वरूप उपहार प्रस्तुत करने, रीति रिवाजों व परंपरा अनुसार सभी प्रकार के अनुष्ठान करने तथा अपने शरीर के साथ साथ अपने घर- परिवार को त्याग कर देने हेतु निर्देश पवित्र पुस्तकों में बताये गए है, जो कि अत्यंत प्रतिभाशाली लोगों द्वारा रची गयी है। आपके समक्ष यह सच्चाई प्रस्तुत करने के साथ साथ, हे महा बुद्धिमान राजकुमार, मेरा सिर्फ यही प्रयोजन है कि आप इस निष्कर्ष पर पहुँच सकें कि इस दिखाई दिए जाने वाले संसार के सिवा और कुछ भी नहीं है।
जबाली के दिए गए समस्त तर्कों का श्रीराम उचित उत्तर देते हैं, हालाँकि वे कुछ नाराज़ भी हो जाते हैं। श्रीराम जाबली को धर्म-पालन करने, अपने पिता को दिए गए वचन को निभाने तथा रघुकुल की मर्यादा की बारे में विस्तार से बताते हैं। श्रीराम कर्म, जन्म -मृत्य, लोक-परलोक, ईश्वर के बारे भी अपने विचार रखते हैं और अपने निशचय (राज्य का त्याग व वन में प्रस्थान ) के बारे में साफ शब्दों में सभी को बताते हैं।



