असर विशेष: सरकारी सिविल सप्लाइज दुकानों में दुगनी कीमत पर मिल रही जीवन रक्षक दवाएं
पर्ची पर साल्ट नेम लिखे होने के बावजूद ज़्यादातर बेचे जा रहे मेहेंगे और अपेक्षाकृत अवमानक जेनेरिक ब्रांड

राजधानी शिमला में शहर के एक बड़े सरकारी अस्पताल में सिविल सप्लाइज शॉप का अजीबो ग़रीब कारनामा सामने आया है I जानकारी के अनुसार 42 वर्षीय युवक जीतेंदर ( काल्पनिक नाम ) जब शिमला शहर के एक बड़े सरकारी अस्पताल की मेडिसिन ओपीडी में इलाज के लिए गया तो उसकी खून की जाँच में मधुमेह रोग की पुष्टि हुई I चूँकि शुगर लेवल खाली पेट 312 थे और तीन महीने की औसतन hba1c 11 % थी जो के स्वस्थ मानकों से बहुत अधिक थे चिकित्सक ने उपचार हेतु सरकारी निर्देशों का पालन करते हुए मरीज़ को निम्नलिखित दवाएं साल्ट नेम से पर्ची पर लिख कर दी और समयानुसार लेने की सलाह दी :
1 tab Metformin + vildagliptin (500/50)mg
2 tab Metformin + glimepride (1000 /2)mg
3 tab atorvas 20 mg

मरीज़ ने अस्पताल परिसर में स्थित एक सरकारी सिविल सप्लाइज शॉप से 10.25 % विशेष छूट पर एक महीने की उपरोक्त दवाएं 1396.49 रूपए में खरीदीं I एक महीने बाद दवा ख़त्म होने पर वही पर्ची लेकर जब उसने वह दवाएं एक स्थानीय निजी मेडिकल स्टोर से खरीदी तो उसे एक महीने की दवाओं के केवल 650 रुपये चुकाने पड़े वो भी बिना किसी छूट के I चिकित्सा तथा दवा विशेषज्ञों से एकत्र की गयी जानकारी के अनुसार 650 रुपये में प्राप्त सभी दवाएं सिविल सप्लाइज शॉप से खरीदी अधिकतर दवाओं से गुणवत्ता मानकों पर बेहतर थीं और सस्ती भी I यह भी गौर हो के मधुमेह और रक्तचाप जैसे मामलों में मरीज़ को आजीवन दवाओं का अनुपान करना होता है इसलिए इनकी गुणवत्ता के साथ साथ इनका सस्ते दामों पर मिलना भी उतना ही अनिवार्य हो जाता है I

गौरतलब हो के बाज़ार में दवाओं के भिन्न भिन्न ब्रांड जेनेरिक उपलब्ध होने के कारण सरकार द्वारा चिकित्सकों को साल्ट नाम लिखने के निर्देश दिए गये थे ताकि मरीज़ को उपयुक्त मूल्यों पर दवाएं मिल सकें और पिछले कुछ वर्षों में कई सिविल सप्लाइज शॉप्स का निर्माण किया गया ताकि मरीजों को सस्ती दरों पर दवाइयां मिल सके I सूत्रों की मानें तो इनमें से कुछ दुकानें सिर्फ मुनाफाखोरी का अड्डा बन चुकी हैं I हालाँकि इन दुकानों का आबंटन एक विशेष प्रक्रिया द्वारा किया जाता है परन्तु साथ ही पड़ताल में यह भी सामने आया के प्रदेश के कुछ बड़े सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेज में इसे पाने के लिए धारकों द्वारा सत्ताधारी पार्टियों द्वारा दबाव भी बनाया जाता है I चर्चाओं के अनुसार बदले में एक अच्छी खासी रकम पार्टी बिचोलियों द्वारा ऐंठी जाती है I मसलन मेडिकल कॉलेज 12 लाख रुपये महिना किसी बड़े सरकारी अस्पताल की दुकान के पांच साल के 50 लाख रुपये तक की कीमत सत्ताधारी पार्टियों तक पहुँचती है I जाहिर है के इस तरह की अफवाहों का कोई ठोस आधार नहीं होता परन्तु सत्ता परिवर्तन पर अक्सर इन दुकानों के संचालकों का रातों रात बदल जाना और सत्तापक्ष की विचारधारा की पृष्ठभूमि से सम्बन्ध रखने वालों का आसीन होना जाँच का विषय है I

पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है के कुछ बड़े सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेज में ज़रा सी खाली जगह मिलने पर मरीजों को सुविधा पहुँचाने के नाम पर अस्पताल प्रशासन पर दबाव बना या मिलीभगत से इस तरह की दुकानों का निर्माण कर दिया जाता है और कई छोटे हस्पतालों में ये दुकाने बंद पड़ी रहती हैं I एक बड़े मेडिकल कॉलेज में तो पर्याप्त सरकारी और निजी दुकानें होने के बावजूद प्रवेश द्वार पर जहाँ कभी एम्बुलेंस पार्क होती थीं वहीँ दुकानों का निर्माण कर निजी हाथों में सौंप दिया गया I यहाँ तक के मरीजों के विश्राम करने और बारिश से बचने के लिए अस्पताल परिसर में बनाये गये शेड्स को दुकानों में तब्दील कर दिया गया I कई अस्पतालों में सड़क से जुड़ी नई ओपीडी को अस्पताल प्रशासन के साथ मिल कर सिविल सप्लाइज धारको द्वारा वापिस पुरानी बिल्डिंग में शिफ्ट करवा दिया गया जहाँ ये इन सरकारी दुकानों के ठीक सामने थीं और कारण दिया गया ECG टेस्ट रूम का जो टेस्ट एक तकनीशियन बड़े मेडिकल कॉलेज में मरीज़ के बेड के पास जा कर भी करता है I
देश में आज 1700 मरीजों पर केवल एक चिकित्सक है और ऐसे में दूरदराज़ से आये मरीज़ घंटो लाइन में खड़े रह कर फर्श पर डेरा डाल संघर्ष कर एक अच्छे चिकित्सक से जांच करा दवाओं के लिए पूर्णतया इस तरह की सरकारी दुकानों पर निर्भर करता है और बाज़ार में सरकार द्वारा निर्देशित सभी मानकों को पास कर उपलब्ध सस्ती एथिकल ब्रांड जेनेरिक दवाओं की जगह अधिकतर अवमानक और मेहेंगी दवाओं का बेचा जाना जाँच का विषय है I सरकारों द्वारा समय समय पर सरकारी चिकित्सकों को दवा पर्चों पर साल्ट नाम लिखने और पर्चियों का ऑडिट रखने के निर्देश दिए गए हैं जिससे के मरीज़ को केवल ज़रूरी दवाएं और वो भी स्पर्धात्मक दरों पर मिल सके परन्तु इसके साथ यह सवाल भी उठ्ता है के इन सरकारी दुकानों पर लगाम कौन कसेगा विशेषकर जब ये कयास लगाये जाते हैं के सरकार की ठीक नाक के नीचे मंत्री संतरियों के गुर्गे इनमे हिस्सेदार बने बैठे हैं I


