विशेषसम्पादकीय

असर संपादकीय: लोक – परलोक

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शोरी की कलम से..

 

 

लोक – परलोक

मानव जीवन इतना कीमती और महत्वपूर्ण है कि इसकी तुलना किसी भी प्रकार के जीवन के साथ नहीं की जा सकती है। मनुष्य बुद्धिमान हैं, उनके पास तर्कसंगत और तार्किक सोच के लिए दिमाग है, उसके पास सभी पांच इंद्रियां हैं और क्या नहीं, फिर भी हर कोई जानता है कि मानव जीवन बहुत छोटा है और उम्र और समय के साथ समाप्त हो जाता है, हाँ अप्राकृतिक मौतों के अपवाद हो सकते हैं। जन्म से पहले मनुष्य कहाँ था और मृत्यु के बाद कहाँ जाएंगे, यह अनंत काल से एक बहुत ही बहस का विषय भी रहा है और रहस्यमय भी। लोगों को अतीत में भी बताया जाता रहा है और आजकल तो कुछ ज़्यादा ही जोर शोर से कहा जा रहा है कि यह जीवन एक छलावे के तरह है , यह संसार तो माया का हिस्सा है, वास्तविक जीवन कुछ अलग है, और हमें अपने इस मायावी संसार का मोह नहीं करना, हमें इस लोक की बजाय परलोक का ध्यान करना है। प्रौद्योगिकी के आगमन के साथ, इन चीजों को फैलाने के लिए अलग -अलग तरीके और तंत्र हैं और यह भी एक कारण है कि इस तरह की वार्ता, भविष्यवाणियों, विचारों, सलाह, स्नैपचैट्स, प्रवचनों, पॉडकास्ट की बाढ़ सी आ गई है और सोशल मीडिया और इंटरनेट का उपयोग आक्रामक रूप से करके चारों ओर लोक की तुलना में परलोक की अवधारणा को बताने, समझाने ओर उस पर ज़ोर देने में अनेकों लोग लगे हुए हैं। श्रोताओं और दर्शकों का तो पता नहीं क्या हो रहा है, लेकिन निश्चित रूप से इस धारा में अपने पैर जमा रही हस्तियां को बढ़ते हुए अनुयायी, ढेरों की पसंद, श्रोताओं की तादाद ओर यू ट्यूब से अधिक से अधिक पैसे आवश्यक मिल रहे हैं।
यदि हम हर मानव की बुनियादी जरूरतों को देखते हैं तो वे निश्चित रूप से भोजन, कपड़े और आश्रय हैं। मौजूदा समय में जब असमानता, बेरोजगारी, चहुँ ओर प्रतिस्पर्धा, बढ़ती कीमतें, जीवन की उच्च लागत, सुरक्षा, अनिश्चित भविष्य जैसी मुसीबतें इंसान को बुरी तरह से घेरे हुयी हैं, तो वो इनको देखे या परलोक को? जीवन में बड़े पैमाने पर संघर्ष है। पैदा होने से ही मानव का संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता है, यह केवल अपने परिमाण, सीमा और अवधि को बदलता है। संघर्ष सभी स्तरों पर है सामाजिक, आर्थिक ओर सांस्कृतिक के साथ साथ परिवार में भी। आधुनिक समय में, स्वयं और परिवार की सुरक्षा भी प्रमुख चिंता में से एक है। वास्तव में हर एक मानव मूल रूप से एक कर्मयोगी है, जीवन भर अपने कर्म करता रहता है, अपने लिए, अपने बच्चों व् परिवार के लिए, समाज ओर देश के लिए। कर्म पर जोर श्री कृष्ण जैसे महान व्यक्ति द्वारा भी दिया गया है। हर कोई अपनी क्षमता, जरूरतों के अनुसार कर्म करता है और परिणाम भी प्राप्त करता है जो उसके अपेक्षाओं के अनुसार भी हो सकते हैं और भिन्न भी।
सब कुछ यहाँ होता है, इस दुनिया में, इस लोक में। एक व्यक्ति जो दूसरों के लिए बुरा करता है, उसे भी वैसा ही फल मिलता है और एक व्यक्ति जो दूसरों के लिए अच्छा करता है, वह भी वैसा ही प्राप्त करता है, हाँ , इसमें देरी, समस्याएं और बाधाएं हो सकती हैं। तथाकथित परलोक की प्रक्षेपण और छवि को केवल मनोवैज्ञानिक रूप से बनाया गया है। एक बार जब कोई व्यक्ति मर जाता है, तो शरीर को जला दिया जाता है या दफनाया जाता है, कुछ भी नहीं बचता है। तथाकथित आत्मा जो विचार प्रक्रिया, भावनाओं, स्वभाव और ऐसी सभी मानसिक स्थितियों का मिश्रण है; उसका अस्तित्व रहता है या नहीं , यह एक विश्वास व् आस्था की बात हो सकती है, जिसका शायद ही कोई वैज्ञानिक आधार या चिकित्सा प्रमाण हो। और अगर धार्मिक दृष्टिकोण से कुछ समय के लिए स्वीकार भी कर लें कि मृत्यु के बाद एक और दुनिया है, तो कोई भी इसके बारे में नहीं जानता है क्योंकि कोई भी वहां जा कर वापस धरती पर नहीं आया , क्योंकि शरीर के साथ तो सब कुछ समाप्त ही हो जाता है।
जो कुछ भी हो रहा है, केवल इस धरती पर ही हो रहा है। जो कुछ भी भावनाएं , अपनापन, लगाव अपनों के साथ होती हैं, तभी तक हैं जब तक कि व्यक्ति जीवित है; समय बीतने के साथ ये सभी चीजें भी फीकी पड़ने लग जाती हैं। नरक और स्वर्ग की छवियां मूल रूप से लोगों के मन में भय मनोविकार की तरह पैदा करने के लिए हैं ताकि उन्हें अच्छे काम करना है सदैव याद रहे, लेकिन वास्तव में यह सफल नहीं रहा है। अंधविश्वासों के साथ साथ, व्यावसायिकता ने कर्म सिद्धांत में प्रवेश किया है क्योंकि लोगों को छलने में तरह तरह के शातिर लोग इसमें संलिप्त रहे हैं। अज्ञात का डर और निकट और प्रिय लोगों को नुकसान के डर ने भी लोगों को कमजोर और कायर बना दिया। अच्छे कर्म सिद्धांत पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, लोगों ने अनुष्ठानों और इसी तरह की अन्य प्रथाओं में विश्वास करना शुरू कर दिया और इसका परिणाम यह रहा कि लोग रहस्यवाद के जाल में उलझ कर रह गए हैं और अच्छे कर्मों से दूर हो गया हैं।

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महान लोगों की बातों का पालन करने के बजाय, जैसा कि वे प्रचार करते रहे हैं, वैसा ही अपने जीवन में कर्म करने के बजाय, लोगों ने उन महापुरुषों को भगवान के रूप में बदल दिया और यह कहना शुरू कर दिया कि उन्होंने कभी भी जो कहा है या बताया है उसे हमारे द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि हम मानव हैं, वे तो भगवान् हैं। हम उसकी पूजा करेंगे, उसको याद करेंगे, उसका नाम लेंगे, ताकि वह प्रसन्न हो लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते जो कभी महापुरुषों ने करने को कही क्योंकि वे चीजें व्यावहारिक रूप से हमारे लिए संभव नहीं हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि लोगों ने इस लोक की तुलना में परलोक के अपने जीवन की देखभाल करना शुरू कर दिया और इस लोक में वे अपने कार्यों को सही ठहराते हैं, चाहे उनके कर्म कैसे भी हों।

Deepika Sharma

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