
रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी
हनुमान जी में एक और विशेषता थी कि उनको अपनी बात को दूसरे के सम्मुख किस प्रकार से रखना है इस में कुशलता प्राप्त थी ।
बातचीत करते समय वे शब्दों व भावों का चयन इस प्रकार से करते थे जिससे सुनने वाला उनकी बात को भली भांति समझ भी जाए और उनकी बात को मान भी जाए।वे सामने वाले की समझ के स्तर के अनुसार बात कर के उसे अपनी मीठी वाणी से अत्यन्त प्रभावित कर देते थे ।
इस विशेषता का विवरण वाल्मीकि रामायण में कई बार आता है और उनमे एक प्रसंग उस समय का है जब हनुमान जी का सामना रावण के साथ होता है।अशोक वाटिका में हनुमान जी ने रावण के अनेकों सैनिकों व अन्य राक्षसों को म्रत्यु के घाट उतार दिया. जब रावण तक यह समाचार पहुंचा कि यह कारनामा एक वानर ने किया है तो वह अत्यन्त क्रोधित हो गया|
उसने अपने पुत्र इन्द्रजीत को आदेश दे कर भेजा कि ऐसे दुस्साहसी वानर को पकड़ कर उसके सामने पेश किया जाय। जब हनुमान को इंदरजीत ने नाग-पाश में जकड़ लिया और उन्हें रावण के पास सभा में ले आया, उस समय हनुमान ने अपने तर्कों से रावण को समझाने का यत्न किया कि उसे चाहिए कि जल्द ही वो सीता को श्रीराम को लौटा दें|
इन सभी तर्कों को वाल्मीकि रामायण में इस तरह से दर्शाया गया है (सुन्दरकाण्ड सर्ग ५१,शलोक१७,१८,१९,२०,२१,२५,२६,२८,२९ )
हनुमान जी रावण को सम्बोधित कर के कहते हैं कि, हे सबसे बुद्धिमान राजा, न्याय-अन्याय, धर्म व सही आचार संहिता, भौतिक सुविधाएं, इन सभी की सच्चाई जानने के बाद, आपको दूसरे की पत्नी को बंदी बना कर अपने पास रखना शोभा नहीं देता।
आप जैसे सयाने इस तरह के कार्य कतई नहीं करते जो कि नेकी के विरुद्ध हों, जिससे बुराई और भी अधिक हो जाती है।और मूल व जड़ का ही विनाश कर देती है।ऐसा राक्षसों व देवतायों में कौन है, जो श्रीराम के गुस्से की आग व लक्ष्मण के तीखे बाणों के वार सह सके?
हे राजा, इस त्रिलोक में ऐसा कोई भी नहीं है जो कि श्रीराम के विरुद्ध ऐसा जघन्य कार्य करने के उपरान्त प्रसन्नता से रह सके। इसलिए मेरा परामर्श स्वीकार करें, जो कि आपके तीनों समय ( भूतकाल, वर्तमान व भविष्य) के हिसाब से उचित भी है और नेक भी और आपको भौतिक खुशी भी प्रदान करेगा|
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जनक पुत्री को श्रीराम ( जो कि पुरुषों में भगवान् का रूप हैं) को लौटा दें। यह आपके लिए बिलकुल भी उचित नहीं है कि आप इस विशाल साम्राज्य को खो दें, जिसे आपने नेक कार्यों से स्थापित किया है ।या आप अपने जीवन को खो दें, जिसे आपने इतना तप करके प्राप्त किया है|
यह अद्भुत नेकी ही है जिसने अभी तक आपको म्रत्यु से ( देवतायों व राक्षसों के हाथों) बचा कर रखा हुआ है. लेकिन नेकी का फल उसके साथ नहीं चल पाता जो बुराई के रास्ते पर स्वंय ही चल रहा हो. चाहे वो स्वंय नेक हो, सिर्फ बदी का फल ही उसके साथ चलता है। और सुनो, गलत कार्य करते हुए चाहे कोई कैसा भी नेक हो, बदी ही उसको फल में प्राप्त होती है|
आपने जो भी भूतकाल में नेक कार्य किये थे, उन सब का आपने सुख अच्छी तरह से भोग लिया है, इस बात में तो किसी प्रकार भी शंका नहीं है। उसी तरह बहुत जल्द आप इस बुरे कार्य (सीता का अपहरण कर उसे बंदी बना कर रखना) का फल भी शीघ्र ही भोगेगे।
दार्शनिक हनुमान
हनुमान जी एक विद्वान, विचारक व दार्शनिक भी थे. जब हनुमान जी ने समस्त लंका को राख के ढेर में बदल दिया तो उस समय उनको अचानक यह विचार आया कि कहीं इस सारे काण्ड में सीता जी को तो किसी प्रकार का नुक्सान तो नहीं हो गया? उनका ह्रदय शोकग्रस्त हो गया और उन्हें अत्यंत पछतावा होने लगा|
जब उन्हें यह ज्ञात हो गया कि सीता पूर्णतया सुरक्षित हैं तो मानो उनके सर से एक बोझ उतर गया हो. लेकिन तभी उन को इस बात का भी एहसास हुया कि जब भी कोई अत्यधिक गुस्से में आकर कैसा भी कार्य करे, तो उसका बहुत ही नुक्सान भी हो सकता है|
इस विचार ने उनको सोचने के लिए भी मजबूर किया और उन्होंने स्वंय पर काबू बनाये रखने के महत्व को भी जाना। उनके इस दार्शनिक रूप के बारे में हमें अधिक मालूम नहीं है।इसे वाल्मीकि रामायण में इस तरह से बताया गया है।
(सुन्दरकाण्ड सर्ग ५५,श्लोक३,४,५,६)
हनुमान जी अपने मन में विचार कर के ऐसा कह रहे हैं कि ऐसे उदार विचार वाले लोग अत्यधिक भाग्यशाली होते हैं जिन्होंने अपने सयानेपन से अपने अंदर के गुस्से पर इस तरह से काबू पा लिया हो .जैसे कि भड़क उठी अग्नि पर पानी की बौछार डाल दी गयी हो। गुस्से में आया हुया इंसान ऐसा कौन सा पाप है जो नहीं कर बैठता? जो गुस्से से भर चुका हो वो तो अपने से बड़ों की भी जान ले सकता है? यही नहीं, गुस्से में आया हुया मानव तो अपनी कडवी वाणी से पवित्र ग्रंथों का भी अपमान कर सकता है|
गुस्से में बौखलाया हुया मानव कभी भी यह अंतर नहीं कर सकता कि उसे क्या मुख से बोलना चाहिये और क्या नहीं।ऐसी कोई भी अभद्र भाषा नहीं है जो कि ऐसी मानव के मुख से निकल नहीं सकती और ऐसा कैसा भी अशोभनीय कार्य नहीं है जो कि उससे हो नहीं सकता. उसी को पुरुष कहते हैं जो अपने गुस्से की ज्वाला पर काबू करके नेकी के रास्ते पर चलता है|जो कि उसके ह्रदय में इस प्रकार उठ चुका होता है जैसे कि किसी विषैले सर्प ने अपना फन उठा लिया हो।