असर सम्पादकीय: कानून की गिरफ्त – कितनी ढीली, कितनी सख्त
रिटायर्ड मेजर जनरल एके शोरी की क़लम से.


“कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, कानून के पंजे से कोई नहीं बच सकता “ ये शब्द या डायलॉग हम काफी समय से सुनते आ रहे हैं. लेकिन व्यावहारिक जीवन में यह कितना सच है? अपराध और सजा साथ-साथ चलते हैं और हमने देखा है कि अपराध कानून से आगे निकल जाता है। अपराध जगत इतना मजबूत है कि कई बार कानून बनाने वाले भी खुद को हारा हुआ महसूस करते हैं। यह भी एक तथ्य है कि कई बार कानून बनाने वाले और तोड़ने वाले आपस में मिले होते हैं जो समाज के लिए अधिक हानिकारक और खतरनाक होता है। हमने यह पहलू भी देखा है कि बहुत से अपराधी अपनी इच्छा से अपराध करते हैं और छूट जाते हैं और ऐसा उन लोगों के साथ होता है जो बहुत प्रभावशाली, अमीर और बहुत ऊंचे संपर्क वाले होते हैं। हमने ऐसे कई मामले देखे हैं जिनमें अपराधी पकड़े भी गए, सलाखों के पीछे डाल दिए गए और फिर मुकदमे के दौरान वे छूट गए क्योंकि उनके खिलाफ कुछ भी साबित नहीं किया जा सका क्योंकि वे इतने अमीर, शक्तिशाली और प्रभावशाली थे कि पैसे और धन की शक्ति के साथ वे सबूतों, गवाहों में हेरफेर कर सकते थे, शीर्ष श्रेणी के वकीलों को नियुक्त कर सकते थे, कानूनी प्रणाली में खामियों का अच्छा उपयोग कर सकते थे, प्रारंभिक जांच रिपोर्टों में हेरफेर और कमजोर कर सकते थे और अंतिम परिणाम उनकी जीत थी। निठारी कांड, आरुषि हत्याकांड इसके उदाहरण हैं लेकिन ऐसे हजारों मामले हैं जहां अपराधी छूट गए हैं।
हमने ऐसे मामले भी देखे हैं जहां छोटे-मोटे अपराधों के लिए लोगों को कई वर्षों तक सलाखों के पीछे रहना पड़ा क्योंकि वे न तो कानूनी सहायता खरीद सकते थे और न ही वे इतने प्रभावशाली थे। हम अखबारों में पढ़ते हैं कि बहुत से लोग कई वर्षों से जेलों में हैं और उन पर मुकदमा भी शुरू नहीं हुआ है। ऐसे परिदृश्य पर हमारी प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए? एक और जुड़ा हुआ प्रश्न जो हमारे मन में आता है वह यह है कि हमारे समाज और राज्य में ऐसा क्यों होता है जबकि हर सरकार सुशासन, नागरिकों के जीवन में शांति और समृद्धि लाने की बात करती है और चुनावों के दौरान उन्हें आश्वासन देती है कि यदि वे सत्ता में आते हैं, तो अपराध मुक्त समाज होगा आदि आदि। ऐसा भी नहीं है कि क़ानून व्यवस्था की ख़राब स्थिति कोई आजकल की है, ऐसा पिछले कई दशकों से हो रहा है; हालाँकि तीव्रता और मात्रा समय समय पर बदल जाती है। यह सत्य है कि समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए सजा का डर बहुत जरूरी है अन्यथा अराजकता या जंगल राज कायम हो जाएगा।
कानून और व्यवस्था कुल मिलाकर चयनात्मक हो गई है। सज़ा का डर नगण्य है, कानून व्यवस्था के रखवालों के साथ अपराधियों का साथ होना आम बात है। निठारी कांड, आरुषि हत्याकांड इसके उदाहरण हैं लेकिन ऐसे हजारों मामले हैं जहां अपराधी छूट गए अगर कोई अपराधी पकड़ा जाता है और जेलों में दाल भी दिया जाय तो भी अखबारों में ऐसी खबरें आती हैं कि अपराधी जेलों के अंदर से भी काम करते हैं। जेलों में मोबाइल होना, ड्रग्स होना, जेलों के अंदर सभी सुविधाएं होना यह दर्शाता है कि अपराधी जेलों के अंदर रहते हुए भी राज करते हैं। दूसरे शब्दों में, अपराधियों का नियंत्रण कानून बनाने वालों और कानून की रखवाली करने वालों पर है। इस तरह की खबरें भी कभी सुनने में प्रचलित हैं कि अधिकांश आपराधिक सक्रिय पुलिस स्टेशनों पर पोस्टिंग बेची जाती है। अगर हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि ऐसा होता है तो यह स्वाभाविक है कि पैसे का लेन-देन अपराधियों द्वारा ही किया जाता है, वेतन भोगी लोगों द्वारा नहीं। न्यायिक प्रक्रिया, व्यवस्था में होने वाली देरी से भी सभी भली-भांति परिचित हैं, मामलों के निपटारे में होने वाली देरी का खामियाजा दशकों और पीढ़ियों तक भुगतना पड़ता है।
आइए इस पहलू का भी विश्लेषण करने का प्रयास करें कि आखिर ऐसा क्यों होता है? मामला सरल, शुद्ध, पवित्र और स्वच्छ है लेकिन हमने इसे जटिल, अशुद्ध और अपवित्र बना दिया है। पृष्ठभूमि में जो है वह है उचित पालन-पोषण, नेतृत्व, दूरदर्शी दृष्टिकोण, उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना, खुश और संतुष्ट रहना, भौतिकवाद का गुलाम न बनना। क्या इसका मतलब पिछड़ जाना, आदिम जीवन जीना है, प्रगतिशील न होना है ? बिल्कुल नहीं।
बस याद रखें कि एक्सीलेटर पर जोर से दबाते समय ब्रेक पर भी दूसरा पैर मजबूती से रखना होता है। क्या इसका मतलब विज्ञान और प्रौद्योगिकी से दूर रहना और आदिम जीवन जीना है? नहीं। लालच, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या मुख्य कारक हैं जो किसी व्यक्ति को कानून तोड़ने वाला और भ्रष्ट होने के लिए उकसाते, भड़काते और फुसलाते हैं। सिस्टम में खामियां, नियमों और विनियमों में ढिलाई और प्रक्रियात्मक खामियां अतिरिक्त इनपुट हैं और कानून बनाने वाले और उनके रक्षक कौन हैं? वे भी उसी परिवेश और पालन-पोषण से आए हैं जो विसंगतियों और कमियों से भरा है। राजनीति का अपराधीकरण होना अथवा हम ऐसा भी कह सकता हैं अपराधियों के हाथों में सत्ता का होना एक गंभीर बीमारी बन गई है।
प्रिय पाठकों, मैं आपके साथ यह साझा करने का प्रयास करूंगा कि महाभारत में भीष्म पितामह ने कानून और व्यवस्था, शासन और राज धर्म के बारे में क्या उल्लेख किया है। भीष्म पितामह चर्चा के दौरान लोगों युधिष्ठिर को कहते हैं कि राजा का राज धर्म है कि वो प्रजा को सुरक्षा प्रदान करे, भय से सुरक्षा दे, दूसरों के डर से सुरक्षा दे, छोटी मछली को बड़ी मछली से बचाना तथ इस बात का भी ख्याल रखना कि कहीं राज्य तो सबसे बड़ी मछली नहीं बन रह। यदि ऐसा होता है तो यह अधर्म है। दण्ड या शासन सामाजिक व्यवस्था का आधार है और दण्ड का भय शासन का आधार है। इसलिए शासन का डर दुनिया को अराजकता से बचाता है और लोगों को एक-दूसरे के प्रति उचित आचरण के मार्ग पर रखता है। केवल भय के कारण, और भलाई के कारण नहीं, अधिकांश लोग सीमा के भीतर रहते हैं। जब राजा अपने हृदय, वाणी और शरीर से प्रजा की रक्षा करता है और अपने पुत्र के अपराध को भी क्षमा नहीं करता, उसे शासन का धर्म कहा जाता है। जब राजा पहले कमजोरों और असहाय की देखभाल करता है, और उसके बाद स्वयं की, जिससे कमजोरों और असहाय को ताकत मिलती है, तो इसे शासन का धर्म कहा जाता है। जब राजा राष्ट्र की रक्षा करता है, लुटेरों और चोरों को वश में करता है और युद्ध में विजयी होता है, उसे शासन का धर्म कहा जाता है। मैंने आपके सामने एक समग्र परिदृश्य रख दिया है। आप इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें।



