असर संपादकीय: धरती का कर्ज़ कब चुकाओगे ? डॉ. निधि शर्मा

हम धन्य हुए कि धरती पर जन्म लेने का अवसर मिला । लेकिन शायद धरा पल-पल स्वयं को कोसती होगी, आख़िर क्यों मनुष्य को यहाँ जन्म लेने की अनुमति दी । ये तो वही बात हो गई कि एक बैंक ने प्रोडक्टिव कामों के लिए कर्ज़ दिया लेकिन मनुष्य की अदूरदर्शिता ने उस धन का उपयोग नॉन-प्रोडक्टिव कार्यों में लगाकर अपनी पुश्तों के भविष्य के लिए रोड़े खड़े कर दिए । आज धरा के अंधा-धुंध उपयोग के कारण हम अपनी प्यारी संतानों के लिए घायल व थकी हुई धरा छोड़ कर जाने के लिए अग्रसर है । फिर हमारी संतानों का वही हाल होगा जो कर्ज़ न चुकाने के कारण परिवार के परिवार आत्महत्या का घातक रास्ता अपना लेते हैं । लेकिन इन सब में उन मासूमों का क्या कसूर, जिन्हें मालूम भी नहीं होता कि उनके पिता जी या दादा जी ने ऋण क्यों लिया था ? यही आलम आज धरा को विकास के नाम पर छलनी कर रहे परिवारों का है जो अपने बच्चों को अच्छा भविष्य देने के लिए पर्यावरण काअंधाधुंध दोहन कर रहे हैं जो भविष्य तो क्या वर्तमान भी ख़राब कर रहा है ।
इन दिनों पहाड़ों में हो रही भारी बरसात ने मनुष्य के विकास मॉडल की कलई खोल कर रख दी है । जहाँ अभी हुई एक या दो तीन दन की भारी बारिश ने सपनों के आशियानें ताश के पत्तों की तरह उड़ा दिए । क्योंकि पहाड़ आक्रोशित हैं, उनके सज़ावट के समान जंगल, नदी एवं नालों पर लोगों का कब्ज़ा हो चुका है । बार-बार बैंक की तरह अल्टीमेटम देने पर भी न कोई सुधरा और ना ही सुधरने का कोई इशारा किया । जब-जब धरा की गैर-निष्पादित परिसंपत्ति लगातार बढ़ेगी, तब-तब प्रकृति अपना धन वापिस लेने के लिए उग्र रूप धारण करेगी । क्योंकि निष्ठुर हो चुकी मानवीय जाति पर कोमलता व संयमित नोटिस का कोई असर नहीं होता । साल में बरसात के दो से तीन महीनों में ही तो उसे अपना अधिकार एवं शक्तियाँ उपयोग करने का मौका मिलता है । अन्यथा मनुष्य तो प्रकृति पर अपना एकाधिकार जमाए हुए है ।
दुःखद पहलू तो यह है कि जैसे बड़े-बड़े धनपति बैंकों का अरबों रुपये लेकर देश से भाग जाते हैं उसी तरह अमेरिका जैसे विकसित देश पर्यावरण को सुरक्षित रखने के महत्वपूर्ण दस्तावेज पेरिस जलवायु समझौते से बार निकल जाते हैं । जिनकी देखा-देखी में छोटे-छोटे कर्ज़ऋणी भी प्रकृति का कर्ज़ चुकाने में आनाकानी करने लग जाते हैं । इस कशमकश में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम मूकदर्शक बन कर बस तमाशा देखता है । हालांकि विश्व में तमाशा देखने वालों की कमी नहीं है क्योंकि बोलना कौन चाहता है? चाहे समुद्र का जलस्तर उनके शहर डूबे दे, हमारे भविष्य वायु-प्रदूषण से अपना बचपन खो दें, बेशक आक्सीजन खरीदनी पड़े और चाहे बाद में सारी जमा-पूंजी बरसात में लोन से बनाई गई प्रापर्टी को फिर खड़ा करने में खर्च हो जाए । फर्क क्या पड़ता है? हम बस यहीं सोचते जा रहे हैं धरा माँ ही तो है जो फिर सबकुछ भूल कर हमें अपना लेगी । लेकिन ये नहीं पता कि संयम का भी एक मूल होता है और जब वह बार-बार छलनी होगा, तो संयमित नहीं रह पाएगा ।
फिर हम अपने बच्चों को पढ़ायेंगे कि एक पेड़ था, एक नदी थी और जंगल हुआ करते थे । बहुत सारे पंछी सुबह-सुबह अपन सुरीली आवाज़ से जग को जगाया करते थे । क्योंकि अगर यही हालात रहे तो सिर्फ आने वाली नस्लों को खारे पानी के समुद्र ही मिलेंगें और पीने के पानी को प्राप्त करने के लिए उनकी 50 प्रतिशत से अधिक पूंजी खर्च हो जाएगी । वो जनरेशन सिर्फ मशीनों से बात करेगी और हवा को साफ करने के मास्क लगाकर घूमती नज़र आएगी । अरे जाग जाऐं । ये सिर्फ एक सपना हो । हमें अभी से सभी को मिलकर धरा का ऋण चुकाने के लिए एकजुट होना होगा । क्योंकि आने वाले समय में हमें कहीं भागने का भी मौका नहीं मिलेगा ।




