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असर विशेष: भरतहरि के ज्ञान सूत्र (1)  परिचय

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी की कलम से

 

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी

भरतहरि के ज्ञान सूत्र (1)

परिचय

 

प्रिय पाठकों, पंचतंत्र से अब मैं दूसरी श्रेणी की ओर जा रहा हूं। इस सप्ताह से अब मैं राजा और संत भरतहरि के सूत्रों को कवर करूंगा. जो मैं पहले से ही बता रहा हूं और चिंता के साथ साझा कर रहा हूं, वही कहानी यहां भी है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारा प्राचीन भारतीय दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण है और हम इसे ठीक से जानने में असफल रहे हैं। गहरे छिपे दर्शन, नैतिकता के सिद्धांत, सार्वजनिक प्रशासन, राजनीति विज्ञान और अन्य सामाजिक विज्ञान विषयों को भली भांति समझने के बजाय, हम इसे केवल एक ही कोण से महिमा मंडित करते हैं, वह है धार्मिक। यदि हमने अपने धर्मग्रंथों को ठीक से समझा होता और उसका पालन भी किया होता, विशेषकर हमारे शासकों ने भी उस पर अमल किया होता तो स्थिति बिल्कुल अलग होती। सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम वस्तुओं और व्यक्तित्वों को ईश्वर के समकक्ष महिमा मंडित घोषित करते हैं और उन्हें समझने और उनका पालन करने के बजाय केवल अपनी पूजा के लिए उपयोग करते हैं। तब हम आसानी से यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि उनकी कही बातों को दुनिया में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि व्यक्ति को व्यावहारिक होना होगा। फिर भी, मैं बातों को सरल व् व्यावहारिक रूप में सामने लाने का अपना प्रयास जारी रखूंगा और आधुनिक समय में ये कैसे प्रासंगिक हो सकते हैं, इस बात को भी तरीके से पेश करता रहूँगा। इसी क्रम में मैं राजा भरतहरि के ज्ञान सूत्र पर आधारित एक नई शृंखला शुरू कर रहा हूं।

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भरतहरि, जिन्हें भारत के कई हिस्सों में जोगी संत भरथरी के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर भारत में कई लोक कथाओं के नायक हैं। दुनिया को त्यागने और अपने छोटे भाई विक्रमादित्य के पक्ष में राजगद्दी छोड़ने से पहले वह उज्जैन के शासक थे। भरतहरि और उनके भतीजे बंगाल के राजा गोपी चंद, जिन्हें नाथ पंथ योगी माना जाता है, की कहानियाँ राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल की भारतीय लोककथाओं में प्रचुर हैं। उनका विवाह एक अत्यंत सुंदर स्त्री से हुआ जिसका नाम पिंगला था। हालाँकि वो दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे लेकिन हुआ यूं कि कुछ समय बाद रानी को महल में ही काम करने वाले एक शख्स से प्यार हो गया। एक बार एक बहुत प्रतिष्ठित संत राजा से मिलने आये और राजा को एक फल दिया और कहा कि यदि वह इसे खायेंगे तो सदैव जवान बने रहेंगे। राजा ने सोचा कि उन्हें यह फल नहीं खाना चाहिए बल्कि इसे अपनी रानी पिंगला को खिला देना चाहिए ताकि वह सदैव जवान बनी रहे। यह मन में रखकर और उसके प्रति प्रेम और स्नेह से भरकर, उसने रानी को वह फल दिया। रानी ने उसे नहीं खाया और आगे फल अपने प्रेमी को सौंप दिया ताकि उसका प्रेमी खुश हो जाए। उसके प्रेमी को एक नाचने वाली स्त्री से प्रेम हो गया था और उसने वह फल उसे दे दिया ताकि उसके प्रति उसका प्रेम वैसे ही बना रहे। उस नाचने वाली महिला ने सोचा कि वह उस फल का क्या करेगी और वह फल उसी पर बर्बाद हो जाएगा। उसने सोचा कि राजा (भरतहरि) इस फल के पात्र हैं। यह मन में विचार करके वह राजा से मिलने गई और फल राजा को सौंप दिया। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और साथ ही उसे धक्का सा भी लगा कि उसी का उसकी प्यारी रानी को दिया हुआ फल उसके पास वापस आ गया है। जब उन्होंने सारा किस्सा सुना तो उन्हें बड़ा झटका लगा। उसने सोचा कि जिस महिला को वह दिल से प्यार करता है वह किसी और से प्यार करती है, वह व्यक्ति किसी अन्य महिला से प्यार करता है और वह महिला राजा पर आसक्त है। वासना के इस प्रकार और स्तर के कारण वह बहुत क्रोधित होने के साथ-साथ शर्मिंदा भी हुए और उन्होंने अपना राज्य छोड़ दिया और गहन अध्ययन और ध्यान के लिए जंगलों में चले गए।

राजा भरतहरि ने तीन ग्रंथ संकलित किए जिनमें प्रत्येक में 100 श्लोक थे जिन्हें नीति शतक, श्रृंगार शतक और वैराग्य शतक कहा जाता है। अब से, मैं पहले वाले यानी नीति शतक पर ध्यान केंद्रित करूंगा और वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार सूत्रों को समझने का प्रयास करेंगे।

Deepika Sharma

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