सम्पादकीय

असर संपादकीय: आज़ाद हैं…

मृदला….
लंबी है आज़ादी
करोड़ों की आबादी
दिल में ग़म
आँखें हैं नम
भूख प्यास सताती
खाली पेट सुलाती
बीमारी से लाचारी
इलाज बिन भारी
गरीबी की मारी
ज़िन्दगियाँ हैं हारी
भ्रूण हत्या जारी
मरती बेटियां प्यारी
हाय ये बलात्कार
औरतों पे अत्याचार
दहेज की प्रथा
कैसी ये व्यथा
जलाने का पाप
बिकते मां बाप
छोटी-छोटी बाला
बचपन कुचल डाला
करा बाल विवाह
जीवन किया स्वाह
गौरव रक्षा हत्या
बराबरी एक मिथ्या
बदन बेच पैसे
पेट भरे ऐसे
जच्चा बच्चा कुपोषण
कैसा ये शोषण
अज्ञानता का अंधेरा
अधूरा शिक्षा घेरा
भटकते हैं तभी
किशोर युवा सभी
धक्के खाएं कहीं
हुनर भी नहीं
गरीबी की मजबूरी
रोज़गार है ज़रूरी
काम की धुन
बेरोज़गारी की घुन
कीमतें छूतीं आसमां
घुटते हुए अरमां
जात पात बाँटे
टुकड़ों में काटे
धर्म का द्वेश
भाषा का क्लेश
मौत की दहशत
आतंकियों की वहशत
कितनी बुरी किस्मत
सर नहीं छत
जहाँ छत वहाँ
टपके जहाँ तहाँ
दायें बायें चोर
भ्रष्ट हर ओर
बिकाऊ है ईमान
मोल मिलता इंसान
आँसुओं का सैलाब
कब आएगा इंक़लाब
पूरे होंगे सपने
दु:ख दूर अपने
क्या अज़ादी व्यर्थ
नहीं कोई अर्थ
याद करो वो
काली शाही जो
गुलामी के दिन
किसी हक बिन
अंग्रेज़ों की मनमानी
शहीदों की कुर्बानी
लोकतंत्र की पुकार
अपनी बनाई सरकार
सब था संभव
खट्टे मीठे अनुभव
वो उतार-चढ़ाव
पार कई पड़ाव
गरीब हुए कम
गरीबी होगी खत्म
लडकियाँ रहीं पढ़
हर क्षेत्र बढ़
हर गाँव बिजली
ज़िदगी है सजली
ख़्वाहिशें रहीं पल
इरादे हैं सबल
ख़्वाब हुए बड़े
मौके हैं खड़े
संस्कृतियों का मेल
मीलों सड़क रेल
अर्थ व्यवस्था सशक्त
हर ओर देशभक्त
कई लक्ष्य अधूरे
नहीं हैं पूरे
पर ख़्याल आज़ाद
सब ख़्वाब आज़ाद
उनकी ताबीर आज़ाद
है इंसा आज़ाद
हर तक़दीर आज़ाद
ये आज़ादी जिंदाबाद
ये आज़ादी जिंदाबाद
Deepika Sharma

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