

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी…..
श्रीराम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से तो जानते हैं लेकिन उनकी दार्शनिकता के बारे हमें इतना ज्ञान नहीं है।

राम राज्य के बारे में भी हम अक्सर बात करते व सुनते हैं लेकिन राजा राम की एक चिंतक, विचारवान, आध्यामिक व दार्शनिक विचारों वाली प्रतिभा से हम थोड़े वंचित है। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम की इन सब विशेश्तायों का विस्तार से वर्णन किया गया है, साथ ही जीवनदर्शन के सभी गहन विषयों पर श्रीराम के विचार बहुत ही सरल भाषा मे बताये गये है जिनसे श्रीराम की दार्शनिकता के बारे में पता चलता है। आईय, श्रीराम के चरित्र के ऐसे पहलू को भी जानने का प्रयत्न करें।
● पिता- पुत्र सम्बन्ध
अपने पिता दशरथ के कहने पर राज पाट को त्याग कर, बिना किसी प्रकार का मन में विचार किय, श्रीराम वन में जाने के लिय ऐसे उत्सुक हो गये मानो पिता ने कोई उपहार दे दिया हो। ऐसा इसलिय कि एक पुत्र के लिय अपने पिता की कही बात को मात्र सुनना ही नहीं बल्कि उसे आज्ञा मान कर उसकी पालना करना श्रीराम ने अपना कर्तव्य माना। उनकी माता कौशल्या ने जब उनको रोकना चाहा तो श्रीराम ने अत्यंत नम्रता से अपनी माता को एक पुत्र के अपने पिता के प्रति कर्तव्यों और दोनों के संबंधो के बारे जो जो कुछ भी कहा, वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के १९वे सर्ग के अनेकों श्लोकों में बताया गया है। श्रीराम कहते है कि राजा दशरथ मेरे पिता होने के साथ-साथ मेरे मित्र,व गुरू हैं, तो ऐसे में उनका कौन सा कार्य बिना किसी हिचकिचाहट के नहीं करूंगा? उनकी आज्ञा होने पर तो भरत की खातिर मैं अयोध्या का राजपाट तो क्या, अपनी व्यक्तिगत पूंजी व अपनी पत्नी का भी त्याग कर सकता हूँ। यह सब मैं सहर्ष ही करने के लिय तैयार हूँ ताकि मेरे द्वारा पिता का दिया हुआ वचन पूरा हो सके। एक पुत्र के लिय अपने पिता की सेवा से अधिक कुछ भी नहीं है।
जब श्रीराम ये सब बातें कह रहे थे, तो उस समय उनकी माता ने उनको माँ होने का वास्ता देकर वन में जाने से रोकने का यत्न किया व मरण व्रत रखने की भी धमकी दी। श्रीराम ने उस समय जो पुत्र- पिता के सम्बन्धों के बारे में उनको बताया, उस का उल्लेख अयोध्या कांड के २१वे सर्ग के श्लोकों में मिलता है। श्रीराम कहते हैं कि जिस प्रकार इस संसार में धर्म की पालना करना सर्वोत्तम है और सबसे महान है सच्चाई, उसी तरह से मेरे लिय मेरे पिता का आदेश सबसे उत्तम है क्योंकि यह धर्मानुसार है। अपने पिता ,माता व गुरु के वचन की पालना करने का अर्थ है धर्म की पालना करना। मेरे लिय वे मेरे पिता, राजा, सहायक, पूजनीय होने के संग मेरे से बड़े व मेरे स्वामी हैं।
● नेकी व नैतिकता
सच की महत्त्ता और नेकी व नैतिकता के मूल्य, इन सभी के बारे में श्रीराम के विचार अत्यंत सराहनीय व ह्रदय में बिठा लेने वाले हैं। इस का वर्णन अयोध्या काण्ड के सर्ग ५९वें के श्लोकों में मिलता है। श्रीराम कहते हैं कि जिस मानव ने औचित्य युक्त विचार व व्यवहार को त्याग दिया हो, जो मानव अनैतिक क्र्त्यों में लिप्त हो जाए और जिसका नैतिकता का पथ समाज में स्थापित नैतिक माप- दंडों से अलग ही हो, ऐसा मानव सभ्य समाज व ज्ञानी लोगों से किसी प्रकार का मान-सम्मान नहीं पा सकता। हर मानव का व्यवहार ही तय करता है कि वो उच्च कुल से है अथवा नहीं। अगर मैं प्रेम व दया का चोला ओढ़ कर अधर्म को अपना लूं तो मेरे द्वारा किय गये कर्म सही नहीं ठहराए जा सकते। महात्मा लोग जो सही व गलत का अंतर बखूबी जानते हैं वे मुझे मान- सम्मान व सत्कार कैसे दे सकते हैं जब उनको पता चले कि मेरा व्यवहार तो कपटपूर्ण व लोगों को छलने वाला था? जब भी किसी व्यक्ति के मन में दुष्कर्म का विचार आता है, फिर उस विचार को वह अपने जिव्हा से अपने संगी- साथियों के साथ चर्चा करता है और बाद में उस पर क्रिया की जाती है, इस तरह से एक दुष्कर्म को पूर्ण करने के लिय अपने विचार, शब्द व कर्म , तीनों ही कलुक्षित हो जाते है।

● सच्चाई
शासकों के लिय सच्चाई का मार्ग ही जीने का सही तरीका है जो कि जो क्रूरता से विपरीत हो। इसलिय सच के मार्ग पर चलना ही एक राजा व शासक की आत्मा है। वेद मन्त्रों को जानने वालों तथा महान दैवों ने भी सच्चाई के मार्ग का सदैव सम्मान किया है।
इस संसार में एक सत्यप्रिय व्यक्ति ही उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति से लोग इस प्रकार से दूर भाग जाते है जैसे कि एक सर्प को देख कर। नेकी का अंतिम पडाव सच ही है बल्कि यह तो सभी का मूल मन्त्र है। सच्चाई तो ईश्वर का ही रूप है। दया धर्म भी सच्चाई पर ही टिके हों। सभी की जड़ें सच्चाई ही में है। सच से उपर कुछ भी नहीं है। परोपकार, धार्मिक अनुष्ठान, पवित्र अग्नि में आहुति डालना इत्यादि तथा वेदों का ज्ञान, इस सब की आधारशिला सच्चाई ही है।
इसलिय सदैव ही सच्चाई के मार्ग पर डटे रहना चाहिए। हमने ऐसा सुना है कि जो व्यक्ति असत्य के मार्ग पर चलता हो, जो अपनी कही बातों व वायदों पर न टिकता हो, और जिसने सत्य का मार्ग त्याग दिया हो, ऐसे व्यक्ति की किसी प्रकार की भी भेंट ईष्वर को स्वीकार नहीं होती।

