

(मेजर जनरल ए के शोरी, रिटायर्ड)……………………….
ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण एक ऐसा महान ग्रन्थ है जिसे हिन्दू अत्यंत श्रद्धा व सम्मान से पूजते है। हालांकि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस अधिक लोकप्रिय कहा जा सकता है क्योंकि इसमें लिखी हुयी चौपाईं सरल होने के कारण जन मानस को आसानी से समझ आ जाती है।

गाँव-देहात के लोग तो परिस्थिति अनुसार तुलसीदास जी की चौपाई गा कर अपना मन भी बहला लेते थे और जीवन की विषम परिस्थिति को समझ भी लेते थे। इसके इलावा, वाल्मीकि रामायण के मुकाबले यह ग्रन्थ छोटा भी है। वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना की, तो उसे एक ऐसे ग्रन्थ के आकार में रचा, जो स्वंय में एक शोध का विषय है। वाल्मीकि रामायण मात्र राम-कथा ही नहीं है, बल्कि यह राजनीति शास्त्र, सुशासन के सिद्धांत, मानवीय सम्बन्ध, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, आध्यात्मिकता, प्रशासन व नैतिकता के सिधांत आदि अनेकों विषयों को स्वंय में समेटा हुआ ज्ञान की एक ऐसी गागर है, जिसमे से जितना भी जल ले लें, कभी कम नहीं होगा।
रामायण एक इन्द्रधनुष की तरह है। वाल्मीकि रामायण को पड़ने वालों की संख्या भी कम है क्योंकि एक तो इसको पड़ने के लिए काफी समय चाहिये और साथ ही इसमें छिपी गहन बातों को समझने के लिय एक विशेष बौद्धिक स्तर भी। लोगों को रामायण की कहानी के बारे में उतना और वैसा ही मालूम है जितना और जैसा फिल्मों व टेलीविज़न पर दिखाया जाता रहा है। उससे रामायण लोगों के दिल में तो उतर गयी लेकिन दिमाग में नहीं क्योंकि उसकी महानता से काफी हद तक लोग विमुख ही रहे।
हज़ारों वर्ष पहले लिखा गया यह महान ग्रन्थ आज भी प्रसांगिक है। आज भी हम राम राज्य की बात करते हैं। राम राज्य जैसा शासन देश में होना चाहिय, इस बात की चर्चा तो खूब की जाती है, लेकिन कैसा था राम राज्य, इस के बारे में बहुत कम जानकारी है, विशेष रूप से राज नेताओं के पास जो इस बात का शोर मचाते हैं। इसलिय, आईय जानने की कोशिश करते हैं कि राम राज्य में सुशासन के कौन से सिधान्तों का पालन किया जाता था। उन सभी बातों, नीतियों व सिधान्तों को वर्तमान के संदर्भ में लाकर एक विश्लेषण भी करेंगे कि क्या ऐसा कुछ हो भी रहा है अथवा नहीं ?
राजा का चुनाव किसी भी देश के राजा का ईमानदार, निष्पक्ष, दूरदर्शी व ज्ञानी होना पहली आवश्यकता है। अपनी प्रजा के आर्थिक स्तर को उंचा उठाना, मतभेद में न पड़ कर सौहार्द का मॉहौल बना कर रखना, लोगों को अंधविश्वास से निकाल कर एक सुलझे हुए समाज की रचना करना और साथ ही अपने राज्य की सुरक्षा का विशेष ख्याल रखना, ये सभी एक राजा के प्रमुख कर्तव्य हैं और प्रजा ऐसे ही राजा को चाहती होती है। इन सब के लिय उसका शिक्षित होना, संवेदनशील, बुद्धिमान होना आवश्यक होता है। एक राजा को समय समय पर इस बात की टोह भी रखनी पडती है कि क्या प्रजा उसके कार्यों से प्रसन्न है? क्या उसने जो योजनायें बनाई है, उन पर समय से काम भी हो रहा है? कहीं किसी तरह की अनिय्मता तो नहीं है? इसके लिय राजा को अपने सलाहकार कह लें या मंत्री ऐसे ही चुनने पड़ते हैं जो सदैव उसका साथ देने वाले व ईमानदार हों, जिनको अपने विभाग का पूर्ण ज्ञान हो। ऐसे ही विचार महर्षि वालमिकी के मन मे आये जब उन्होंने इस बात पर मंथन किया। उनके मन में आये इन विचारों का उल्लेख बाल काण्ड के प्रारम्भ में आता है, जब वे नारद जी के साथ इस पर विचार- विमर्श कर रहे है। अगर आज हम अपने देश मे एक ऐसे शासक की उम्मीद रखते हैं और चाहते हैं कि देश में राम-राज्य हो, तो आवश्यकता है उन सभी विशेश्तायों को जानने की जो कि एक राजा और उसके मंत्रियों में होनी चाहिए। राजा दशरथ ने श्री राम को अपना उत्तराधिकारी ऐसे ही नहीं बना दिया कि वो उनके सबसे प्रिय पुत्र थे। मिथिला से वापिस आने के बाद, श्री राम काफी समय तक राज्य-प्रबन्धन के कार्यों में राजा दशरथ के साथ उनके सहायक की तरह कार्य कर रहे थे। राजा दशरथ उनकी कार्य प्रणाली, व्यवहार, प्रबंध कौशल आदि का सूक्ष्मता से निरीक्षण भी करते थे।
जब कुछ समय निकल गया और उनको लगने लगा कि अब वृद्धा अवस्था आ रही है इसलिय उनको राज-पाट से हट जाना चाहिय तो सबसे पहले उन्हों ने अपने करीबी मंत्रियों व सलाहकारों से परामर्श किया कि श्री राम के बारे में उनके क्या विचार है। उनकी सकरात्मक सहमती के बाद उन्होंने एक सभा बुलाई जिसमे अयोध्या के जाने- माने- लोगों के साथ अपने मित्र पड़ोसी देशों के राजा भी बुलाये। भरी सभा में उन्हों ने ये प्रस्ताव रखा कि श्री राम अस्त्र- शास्त्र के महारथी, ज्ञानी, मदुर भाषी व संयमी होने के साथ एक कुशल प्रबन्धक भी हैं, तो ऐसे में सभी का क्या मत है। उपस्थित सभी लोगों ने एक मत से इस बात का अनुमोदन किया कि दशरथ के बाद श्री राम ही हैं जो कि अयोध्या के सिंघासन पर बैठने के लिए सबसे योग्य हैं। अर्थात, श्री राम का चयन सर्वसम्मति से उनकी योग्य्तायों के आधार पर किया गया. अगर हम चाहते है कि हमारे देश में राम-राज्य जैसा शासन हो, तो सबसे पहले हमें इस बात को देखना है कि हमारे शासक धर्म, वर्ग, जाति के आधार पर नहीं बल्कि उस पद के लिय आवश्यक योग्य्तायों के आधार पर चुने जायं, इसके लिय प्रजा को ही इस बात का निर्णय लेना है, क्या राजा का चुनाव हम इन बातों को ध्यान मे रख कर करते हैं?
क्या हम उसकी शैक्षणिक योग्यता, ईमानदारी, देश व समाज के प्रति कर्तव्यनिष्ठा जैसी विशेश्तायों को जान कर उसका चुनाव करते हैं? हम उसके अपराधिक क्र्त्यों में लिप्त होने के बावजूद भी उसे अपना नेता मान लेते हैं। क्या हम सिर्फ इस लिय किसी को अपना नेता चुन लेते हैं क्योंकि वो धन दौलत और अपने रुआब से लोगों में डर सा बिठा देता है? अगर ऐसा है तो फिर राम राज्य की तो नींव ही बिगड़ गयी। ऐसे में राम-राज्य की बात करना ही बेमानी हो जाता है। राम-राज्य मात्र एक घोषणा या नारा नहीं है, यह तो एक विचारधारा, एक व्यवस्था है, जिसको लाने के लिय सबसे पहले उसे जानना आवश्यक है, और जानने के बाद उस को मानना।




