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हिमाचल सरकार का शुल्क निर्णय: गरीबों पर बोझ, स्वास्थ्य अधिकार का हनन

डॉ जनक राज विधायक पांगी भरमौर पूर्व चिकित्सा अधीक्षक और आचार्य/विभागाध्यक्ष न्यूरोसर्जरी विभाग आईजीएमसी शिमला ki कलम से

हिमाचल प्रदेश की सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार ने एक चौंकाने वाला फैसला लिया है, जिसने राज्य की जनता को आक्रोशित कर दिया है। 5 जून, 2025 से सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में ओपीडी पर्ची के लिए 10 रुपये का शुल्क और 133 विभिन्न जांचों पर भुगतान अनिवार्य कर दिया गया है। सरकार इसे स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने का कदम बता रही है, लेकिन यह निर्णय गरीबों की जेब पर डाका और संवैधानिक स्वास्थ्य अधिकारों का खुला उल्लंघन है। इस कदम की कड़ी आलोचना जरूरी है, क्योंकि यह “सुख की सरकार” के नारे को खोखला साबित करता है।

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गरीबों पर अनुचित बोझ
हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी राज्य है, जहां ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी आबादी दिहाड़ी मजदूरी और सीमित आय पर निर्भर है। एक मजदूर, जिसकी रोजाना कमाई 300-400 रुपये है, के लिए 10 रुपये की पर्ची और जांचों का अतिरिक्त शुल्क भारी पड़ेगा। बार-बार अस्पताल जाना, खासकर पुरानी बीमारियों या परिवार के कई सदस्यों के इलाज के लिए, उनकी जेब को खाली कर देगा। क्या सरकार ने यह सोचा कि गरीबी रेखा से नीचे (BPL) जीवन बिताने वाले लाखों लोग इस बोझ को कैसे सहेंगे? यह कदम न केवल आर्थिक असमानता को बढ़ावा देता है, बल्कि गरीबों को निजी अस्पतालों की ओर धकेलता है, जहां खर्च कई गुना ज्यादा है।
संवैधानिक अधिकार का हनन
भारत का संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 21, हर नागरिक को “जीवन के अधिकार” की गारंटी देता है, जिसमें स्वास्थ्य और चिकित्सा देखभाल शामिल है। सुप्रीम कोर्ट ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ (1989) में स्पष्ट कहा कि आपातकालीन चिकित्सा सरकार का कर्तव्य है। फिर, पश्चिम बंगा खेत मजदूर समिति (1996) मामले में कोर्ट ने सरकार को पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित करने का आदेश दिया। हिमाचल सरकार का यह शुल्क लागू करना न केवल इन फैसलों की अवमानना है, बल्कि गरीबों के मूलभूत अधिकारों पर हमला है। आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं पहले से ही मुफ्त इलाज का वादा करती हैं, लेकिन पहुंच और जागरूकता की कमी के बीच यह शुल्क जनता को और पीछे धकेलेगा।
सरकार की नीयत पर सवाल
सरकार दावा करती है कि शुल्क से जुटने वाला धन स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करेगा। लेकिन सवाल यह है क्या इसकी गारंटी है? हिमाचल में पहले से ही सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों, उपकरणों और दवाओं की कमी है। अगर सरकार वाकई गंभीर है, तो पहले पारदर्शिता सुनिश्चित करे कि यह शुल्क कहां खर्च होगा। *यह कदम निजी अस्पतालों को फायदा पहुंचाने की साजिश है।*
हिमकेयर योजना में पहले ही अस्पतालों की देनदारियों के अरबों रुपये बकाया हैं,और सरकार की प्राथमिकता सरकारी संस्थानों को मजबूत करने की बजाय शुल्क थोपना है। यह “सुख” का नहीं, बल्कि “दुख” का प्रमाण है।
जनता का आक्रोश
सोशल मीडिया और सड़कों पर जनता का गुस्सा साफ दिख रहा है। लोग पूछ रहे हैं कि जब आयुष्मान भारत और हिमकेयर जैसी योजनाएं मुफ्त इलाज का दावा करती हैं, तो यह शुल्क क्यों? ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहले से जर्जर हैं, यह निर्णय मरीजों को मजबूरन महंगे निजी क्लीनिकों की ओर ले जाएगा। भाजपा और अन्य विपक्षी दलों ने इसे “गरीब-विरोधी” करार दिया है, और आने वाले दिनों में विरोध प्रदर्शन तेज होने की संभावना है। क्या सरकार इस आक्रोश को नजरअंदाज करेगी?
जरूरी है संतुलित रास्ता
हिमाचल सरकार का यह निर्णय निंदनीय है और तुरंत वापस लिया जाना चाहिए। अगर संसाधन जुटाना जरूरी है, तो आय-आधारित छूट लागू हो—BPL परिवारों, बुजुर्गों, और दिव्यांगों के लिए पर्ची और जांच मुफ्त हों। सरकार को चाहिए कि वह स्वास्थ्य बजट बढ़ाने के लिए केंद्र से मदद मांगे और निजी क्षेत्र की लूट पर लगाम लगाए। स्वास्थ्य कोई विलासिता नहीं, बल्कि हर नागरिक का हक है, और इस हक को छीनना अस्वीकार्य है।
निष्कर्ष
सुक्खू सरकार का यह शुल्क लागू करने का फैसला गरीबों पर क्रूर मजाक है। यह न केवल संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि हिमाचल की जनता के साथ विश्वासघात भी है। सरकार को इस कदम पर पुनर्विचार करना होगा, वरना जनता का गुस्सा सड़कों से विधानसभा तक पहुंचेगा। “सुख की सरकार” का दावा तभी सार्थक होगा, जब स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरत हर किसी के लिए सुलभ हो, न कि शुल्क का शिकंजा बने।

 

Deepika Sharma

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