विशेषसम्पादकीय

असर संपादकीय “पुलवामा से पहलगाम”

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शोरी की कलम से…

पहलगाम में पर्यटकों के हाल ही में हुए बर्बर नरसंहार ने पुलवामा की यादों को वापस ताज़ा कर दिया है। लोग यह मान रहे थे कि घाटी में चीजें सामान्य हैं और स्वतंत्र रूप से घूमने फिरने वाले पर्यटकों की संख्या भी एक संकेत थी, लेकिन इस घटना ने इस पर एक प्रश्न लगा दिया है। छिटपुट आतंकवाद की घटनाएं तो चल रहीं थी लेकिन इतनी बड़ी घटना होगी, इसका किसी को अंदाज़ा नहीं था. अनुच्छेद 370 समाप्त होने और जम्मू और कश्मीर में चुनावों के बाद, यह अनुमान लगाया गया था कि राज्य राष्ट्रीय मुख्य धारा से जुड़ रहा है। बीच में थोड़ा सा समय आता है जब लगता है जैसे माहौल ठीक हो रहा है, लेकिन तथ्य यह है कि हिंसा स्वतंत्रता के बाद से घाटी का एक अभिन्न अंग रही है। जब भी इस तरह की बर्बर घटनाएं होती हैं, तो जुनून बढ़ता है, भावनाएं जोश मारती हैं इस बार आर पार की लड़ाई की बात भी उभर कर सामने आती है, टीवी चैनल बहुत उत्साहित हो जाते हैं, डिबेट पर डिबेट होती है धार्मिक कट्टरता भी उभरती है और ऐसा है, वैसा है को साबित करने के प्रयास किए जाते हैं। यह कुछ दिनों तक जारी रहता है। कुछ दिनों के बाद चीजें सामान्य हो जाती हैं लेकिन इस बार शासन ने अपने क्रोध और दृढ़ता को व्यक्त करने के लिए कुछ ऐसे निर्णय किये हैं जिनसे एक संदेश दुनिया को जा रहा है कि भारत हाथ पर हाथ रख तो बैठा नहीं रह सकता। हालांकि पानी की संधि को रद्द करने से पानी रुक जायगा, ऐसा नहीं लगता है और न ही वीजा से इनकार करना या दूतावास के कर्मचारियों की संख्या कम कर देने से कोई ख़ास फर्क पडेगा। पाकिस्तान पर हमला करने या पाकिस्तान के कब्जा वाले कश्मीर को वर्तमान कश्मीर से मिला लेने की चर्चा भी कई चैनलों पर हो रही है।

पर्यटकों को मारने से निश्चित रूप से घाटी में आने वाले पर्यटकों की संख्या तो निश्चित रूप से कम हो जायगी, पर यह किसको प्रभावित करने वाला है? निश्चित रूप से यह स्थानीय होटलों, रेस्तरां, ट्रांसपोर्टरों, पर्यटन एजेंटों, उपहार की दुकानों और कई अन्य व्यावसायिक गतिविधियों को प्रभावित करने जा रहा है क्योंकि घाटी में लोगों की जीविका पर्यटकों की संख्या पर निर्भर है। कुछ लोगों को मारने से एक देश को विभाजित नहीं किया जा सकता है, बल्कि यह स्थानीय लोगों को सबसे अधिक आर्थिक रूप से और साथ ही सामाजिक रूप से प्रभावित करता है। हिंदू मुस्लिम दृष्टिकोण से इस घटना को देखने का कोई मतलब नहीं है। हालांकि मुसलमान घाटी पर हावी हैं, लेकिन यह उन्हें भी प्रभावित करता है। एक और सवाल यह है कि इस तरह की घटनाओं को अपने एजेंटों के माध्यम से होने के बाद पाकिस्तान को क्या मिलता है? पाकिस्तान को कश्मीर नहीं मिल सकता है, पाकिस्तान के शासक इसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पाकिस्तान को केवल आलोचनावाद मिलता है। इस तरह की घटनाएं कश्मीरी मुसलमानों के बीच एकजुटता नहीं लाती हैं, बल्कि यह उनके लिए सभी प्रकार की समस्याएं पैदा करती है। पाकिस्तान न तो आर्थिक रूप से लाभान्वित होता है और न ही सामाजिक रूप से बल्कि यह अपने संसाधनों का उपयोग करता है और केवल कुछ हत्याओं में सौदेबाजी करता है। एक विचारधारा यह भी है कि पाकिस्तान के शासक ज्यादातर भ्रष्ट और अक्षम हैं, धर्म और जिहाद के नाम पर इस प्रकार की गतिविधियों को पूरा करके जनता का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करते रहते हैं ताकि आर्थिक समस्यायों , बेरोज़गारी, शिक्षा , स्वास्थय, आदि क्षेत्रों से लोगों का ध्यान दूर रहे। और चूंकि पाकिस्तान विभिन्न क्षेत्रों में भारत के समग्र विकास से बहुत पीछे है , इसलिए ईर्ष्या के कारण भी समस्या पैदा करने की कोशिश करता है ताकि भारत हमेशा क्षति नियंत्रण में हो। कश्मीर पाकिस्तान के सभी राजनीतिक नेताओं के साथ -साथ पाकिस्तान में सेना के प्रमुखों का मुख्य एजेंडा बिंदु है ताकि वे हमेशा आम जनता को उकसाते रहें।

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लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह आतंकवाद कभी समाप्त हो भी पायेगा और भारत को यह सुनिश्चित करने के लिए की भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों, क्या विकल्प हैं। पाठकों, आइए हम इस तथ्य को समझने की कोशिश करते हैं कि वर्तमान समय में जब हर देश और विशेष रूप से पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं, तो पूर्ण रूप से बड़े पैमाने पर युद्ध समाधान नहीं है, जो न केवल दोनों देशों के लिए बहुत ही विनाशकारी होगा, बल्कि पड़ोसी देशों को भी बहुत नुक्सान होगा। आर्थिक रूप से दोनों ही देश भी परम्परागत युद्ध को वहन करने की स्थिति में नहीं हैं, हालांकि भारत इसे लंबे समय तक खींच सकता है, लेकिन अंततः यह आम जनता के लिए एक आपदा होगी। हाल के यूक्रेन युद्ध का उदाहरण हमारे सामने है। आतंकी शिविरों को ध्वस्त करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक जैसा कि सीमावर्ती क्षेत्रों में अतीत में हुआ है एक अक्सर अपनाया जाने वाला समाधान हो सकता है। लेकिन सशस्त्र बलों के मनोबल को उच्च और राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन मिलना बहुत आवश्यक है, जो कभी -कभार जब सेवानिवृत्त कर्नल और वायु सेना के अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार जैसी घटनाओं के कारण कम हो जाता है। सीमा पार से आतंकवादियों की घुसपैठ और हत्यारों की तस्करी तो जैसे रुक ही नहीं रहा है। स्थानीय लोगों का दिल से या मजबूरी से आतंकवादियों को संरक्षण देने की खबरें भी आती रहती हैं। सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी भी हो सकती है जिसे फिर से देखना आवश्यक है। कमियां एक नहीं कई स्थानों पर हैं जिन्हें अलग -अलग स्तरों पर विमर्श कर सुलझाया भी जा सकता है। पर यह सब करेगा कौन, कब और कैसे? राजनीतिक इच्छा हो लेकिन राजनीतिक एजेंडा नहीं होना चाहिए। पचास से अधिक वर्षों तक, सीमा के उस पार से घुसपैठ को न हम रोक पाए हैं न ही बॉर्डर को सील कर पाए है। इंटेलिजेंस ब्यूरो, रॉ, मिलिट्री इंटेलिजेंस, लोकल सी आयी डी, पुलिस, सीमा सुरक्षा बल, केंद्रीय रिज़र्व पुलिस, सेना, इन अब के होते हुए भी सुरक्षा और सूचना में चूक अगर हो तो मन में सवाल तो आएगा है।

Deepika Sharma

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