सम्पादकीय

असर संपादकीय: क्या खोया क्या पाया

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शोरी की कलम से…

 


रिटायर्ड मेजर जनरल एके शोरी की कलम से…

विकास सार्वभौमिक सत्य है और हम सभी इस बात की भलीभांति जानते हैं कि पशु से मानव बनने की प्रक्रिया में परिवर्तन ने एक लंबी अवधि ली है।

 

एक जानवर और एक इंसान के बीच एक सोच शक्ति, तर्क, विचित्रता और वर्तमान से कभी संतुष्ट न होने के प्रमुख अंतर ने हर क्षेत्र में ज़बरदस्त बदलाव किए हैं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और यह चिरस्थायी भी रहेगा। यह न तो एक बार में हुआ है और कभी भी बंद नहीं हुआ है और साथ ही यह एक निरंतर प्रक्रिया है जो चल रही है। जिस दिन एक पहिया का आविष्कार किया गया था, मशीन ने खुद को पेश किया और मानव ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हालांकि शुरू में यह प्रक्रिया धीमी थी, लेकिन पिछले दस वर्षों से आविष्कार और परिवर्तन की सीमा पिछले एक सौ वर्षों के दौरान हुई तुलना में बहुत अधिक है। औद्योगिकीकरण से लेकर तकनीकी क्रांति तक, सरल मशीनों से लेकर कंप्यूटर तक और गैजेट्स का समर्थन करने से लेकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता तक; इतना कुछ हुआ है कि कुछ समय के लिए इन सब को समझना और समेटना भी एक मुश्किल काम लगता है। गूगल नक्शे से लेकर चैट जीपीटी तक, मौद्रिक लेनदेन से लेकर पावर पॉइंट तक, टच स्क्रीन की दुनिया यह सब कुछ इतना सरल और आसान प्रतीत होता है, हालांकि इसके पीछे की प्रक्रिया कठिन है। कभी -कभी यह इतना आसान और आरामदायक लगता है कि किसी को ऐसा लगता है जैसे कि पूरी दुनिया हथेली में है और वह भी विशेष रूप से जब सोशल मीडिया व्यक्तिगत जीवन को बदल रहा है। चिकित्सा विज्ञान में पिछले एक दशक के दौरान भी अत्यंत बदलाव हुआ है, जिसने मानव को गंभीर बीमारियों के उचित उपचार के लिए सुविधा प्रदान की है और जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया है, यह रुक नहीं रहा है और कभी भी नहीं रुक जाएगा, यह एक निरंतर प्रक्रिया है जो तेजी से गति के साथ चल रही है।

लेकिन अगर हम ज़रा रुक कर यह मूल्यांकन करने की कोशिश करें कि इस तीव्र गति के , आधुनिकीकरण, मशीनी युग, कम्यूटर में आयी बड़ी तब्दीलियाँ जैसी प्रक्रिया में जो हमने क्या कुछ खो दिया है, तो उस की सूची भी लंबी होगी। अगर हम स्वंय को देखें, अपने परिवार को देखें, समाज को देखें तो एक लम्बी सूची में जो कुछ हमने खो दिया है या धीरे धीरे हम खोते जा रहे हैं तो हमारे दिल से एक आवाज़ आएगी जो हमें कहेगी कि कुटुम्ब प्रथा कम हो गई है क्योंकि संयुक्त परिवार प्रथा टूट गई, आदर व् स्नेह कम हो गया, रिश्तों की गरिमा समाप्त हो गई। सम्बंध कम हुए तो रिश्तों में बनावट आ गई, बल्कि कुछ रिश्ते तो गुमनामी के अँधेरे में चले गए। आपस में प्रेम व् स्नेह कम हुया, शिष्टाचार और मर्यादा कम हो गई, बड़ों की शर्म कम हो गई। सत्य, निष्ठा, ईमानदारी कम हो गई , दोस्तों के प्रति समर्पण कम हुआ, सहनशक्ति कम हुई, श्रद्धा-विश्वास कम हुआ। आर्थिक मजबूरियों ने तनाव पैदा किया तो नींद, चैन, आराम कम हो गया। काम का दबाव, प्रदर्शन करने का दबाव, परिवार और साथियों की उच्च उम्मीदें, इन सब ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करना शुरू कर दिया।

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दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानवीयता कम हो रही है और जीवन का व्यावहारिक तरीका इसे बदल रहा है। व्यक्तिगत संबंध प्यार और स्नेह के बजाय स्वार्थ के कारण हैं, मेडिकल साइंस ने जितनी तरक्की की है, उससे भी अधिक नई बीमारियां भी आ गई हैं, सम्पर्क व् यात्रा के साधन तीव्र तुरंत तो हैं लेकिन समय की कमी भी हो गई है, कम्यूटर पर काम तो बहुत हो जाता है और जल्दी भी, लेकिन साथ ही तनाव, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा भी देता है। सोशल मीडिया मनोरंजन और लोकप्रियता भी देता है लेकिन यह आत्म -केंद्रित, लोकलुभावन और चापलूसी करने वाला भी बनाता है। जो कुछ भी इस आत्म मंथन से उभरता है वह यह है कि तकनीकी, चिकित्सकीय, संचार और परिवहन के दृष्टिकोण से मानव ने अपने काम को आसान बना लिया है, लेकिन सामाजिक, नैतिक रूप और से, सांस्कृतिक दृष्टिकोण से नीचे की ओर प्रवृत्ति रही है। विकास का प्रसार भी बदल गया है क्योंकि प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों से दूरी बढ़ गई है। कंप्यूटर के तेज प्रोसेसर काम को आसान बना रहे हैं, लेकिन लोगों को अधीर भी बना रहे हैं। अक्लमंदी का स्तर भी बढ़ रहा है लेकिन कृत्रिमता भी बढ़ रही है। पैसे बनाने के दिमाग संबंध बनाने की तुलना में अधिक सक्रिय हैं।

इस परिदृश्य में मन में यह प्रश्न भी आता है कि क्या परिवर्तन की गति, तकनीकी परिवर्तन की सीमा रुक जाएगी या धीमी हो जाएगी? जवाब है बिल्कुल नहीं। विकास की प्रक्रिया का आकार बदल जाता है, लेकिन यह कभी नहीं रुकती है। वर्तमान समय के दौरान और भविष्य में आवश्यकता जीवन, संबंधों, विचार प्रक्रिया, भावनाओं और प्रौद्योगिकी तरक्की में एक संतुलन बनाने की है। जिस तरह से दुनिया चल रही है, जिस तरह से लोग व्यवहार कर रहे हैं, जिस दिशा में राष्ट्र जा रहे हैं, जिन प्रथाओं का प्रचलन हो रहा है, इस सभी से यह प्रतीत होता है कि तर्कहीन, अतार्किक और अप्रासंगिक चीजें मानव मन पर हावी हैं। मानव पथ का अधिकांश हिस्सा दिशा हीन और उद्देश्यहीन होता जा रहा है। मनुष्य अतार्किक चीजों और तर्कहीन मुद्दों में सांत्वना और समाधान खोजने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानव हर दिन खो अधिक रहा है और पा कम रहा है। यदि यह इस तरह हो रहा है, तो वह समय आ गया है जब मानव को थोड़ा रुकना चाहिए, स्वंय को देखें और फिर आगे बढ़ना चाहिए। क्योंकि जो चीजें खो जाती हैं वे वापस हासिल करना मुश्किल है और इसमें बहुत अधिक समय भी लगता है। चूहे की दौड़ बहुत आकर्षक प्रतीत होती है, लेकिन एक बार जब कोई इसमें फंस जाता है, तो पाने के लिए बहुत कम होता है और खोने के लिए बहुत। उद्देश्य हीन जीवन में खोना बहुत कुछ होता है और पाना बहुत कम। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण होता है उद्देश्य जो तार्किक, सांस्कृतिक और बौद्धिक हो।

Deepika Sharma

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