
स्वच्छंद सोच ही आज़ादी है
डॉ. निधि शर्मा
(स्वतंत्र लेखिका
मेरे पड़ोस में रहने वाली आंटी का माना है कि श्याम स्टोर में मिलने वाली चीजें सबसे ज्यादा बढ़िया है क्योंकि इन दिनों सोशल मीडिया में इस दुकान के शहर में बहुत चर्चे हैं । हो सकता है कि शहर की 90 से 95 प्रतिशत आबादी कभी इस दुकान में गई भी ना हो लेकिन उस दुकान और उसके समान के प्रति सोच लोगों की बहुत सकारात्मक है । इसलिए इससे ये सिद्ध होता है कि जो आज दिखता है सिर्फ वही बिकता है । जो नहीं दिखता उसे या तो कूढ़े दान में डाल दिया जाता है या नकारा समझ कर उसके होने और न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता ।
ये कैसा समाज ? जिनके व्यवहार और सोच को सिर्फ सोशल मीडिया चला रहा है । हम व्यवहारिक तौर पर 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गए । विकास की यात्रा चलती रही । फिर दौर आया 1990 का जब निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के द्वारा साम्राज्यवाद ने हमारे देश को घोट लिया । इस दौर के पीढ़ी क्या खाएगी, क्या पहनेगी और क्या सोचेगी ? ये सिर्फ बड़ी-बड़ी कंपनिया निर्धारित करने लगी । ये वो परतंत्रता थी जो न दिखती थी बस आपके आस-पास के लोग इसे महसूस कर सकते है । उस आहट को दरकिनार करने का खामियाज़ा 90 के दशक के बाद पैदा हुई युवापीढ़ी के आहार-व्यवहार और सोच को भुगतना पड़ा । उनकी सोच स्वतंत्र होकर भी आज़ाद नहीं है । फिर दौर आया 21वीं सदी की जिसमें इंटरनेट के जाल ने लोगों का नज़रिया ही परिवर्तित कर दिया । साम्राज्यवाद का शुरूआती दौर तो ज्यादा खाने पहनने या रहने तक सीमित था लेकिन इंटरनेट के दौर ने ऐसा पकड़ा कि उससे आज़ाद होने का तरीका हम जान ही नहीं सके । वर्ष 2000 से 2010 के बीच सोशल मीडिया की दस्तक ने तो मानो साम्राज्यवाद के प्रचार-प्रसार में घी का काम किया । वर्ष 2004 में ऑर्कुट नाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने बेशक विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक प्लेटफॉर्म दिया जो शायद मास मीडिया का कोई भी माध्यम हमारे देश में उतना तेजी से नई पीढ़ी द्वारा नहीं अपनाया गया । इस प्लेटफॉर्म के अपनाने की उच्च रेशों को देखते हुए वर्ष 2006 में फेसबुक की और वर्ष 2010 में इंस्टाग्राम की हमारे देश में एंट्री हुई । ये वो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म थे जिनके आते ही युवा पीढ़ी इनकी दीवानी हो गई । बेशक 15 अगस्त 1995 को ही इंटरनेट भारत में आम जनता की पहुँच से बहुत दूर था । जैसे प्रोफेशनल के लिए 9.6 के बीपीएस पाँच हज़ार रूपये सलाना, इसी स्पीड को नॉन कर्मिशयल श्रेणी में पाने के लिए 15 हज़ार रूपये सलाना और कर्मिशयल श्रेणी के लिए 25 हज़ार रूपये सलाना चुकाने पड़ते थे । लेकिन आज कई गुणा स्पीड कुछ रूपयों में आम जनता को मिल जाती है । लेकिन इस स्पीड ने लोगों की काम करने की गति को तो बढ़ा दिया लेकिन धीरे-धीरे आती हुई सुनामी की भनक को ना भांप पाए । एक सर्वे के मुताबिक देश में 820 मिलियन से अधिक सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं । इनमें से आधे से अधिक 442 मिलियन देश के ग्रामीण इलाकों से आते हैं । ये आंकड़े इस बात को दर्शाते हैं कि हमारी सूचना और बनावटी सोच सबकोने-कोने तक पहुँच चुकी है ।
यह कैसी आज़ादी ? व्यवहारिक तौर पर 78 वर्ष हो चुके हैं हमें आज़ाद हुए लेकिन वैचारिक तौर पर अब भी हम परतंत्र हैं । हमारे आस-पास सूचनाओं का ऐसा फौलादी मकड़जाल है जिसमें हम फंसते ही जा रहे हैं । जिसके कारण हमारे दिमाग में ताला लग चुका है । जनता सिर्फ वही सोच रही है जो उसे दिखाया जा रहा है दुर्भाग्य से नई पीढ़ी की सोशल मीडिया पर अत्याधिक निर्भरता के कारण वो इस चक्रव्यूह से निकलना भी नहीं जानती । शायद किताबी दुनिया या समाचारपत्रों से लगाव रखने वाली पीढ़ी कुछ स्वयं के विचार रखती हो, जिसके कारण आज़ादी महसूस करती हो लेकिन आज की पीढ़ी को तो ये भी नहीं पता कि वे फिर पराधीन हो चुके हैं । क्योंकि सही मायने में आज़ादी सोच की है आप यकीन मानिए आप फिर परतंत्र हो चुके हैं । अब भी समय है लौट आईए । आपके खुले विचार परवश से बाहर निकालकर, एक स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने में कारगर होंगें । ऐसा ना हो फिर अधीन होकर 200 वर्ष बाद कोई और क्रांति लड़नी पड़े ।याद रखो आर्टिफिशयल इंटैलिजैंस का युग दस्तक दे चुका है ।



