
हिमाचल
रिटायर्ड मेज़र जनरल ..एके शौरी
शब्द सुनते ही हमारी आँखों के सामने जो चित्र आ जाता है वो था चील और देवधर के ऊँचे-ऊँचे पेड़, वातावरण में एक भीनी भीनी सी सुगंध, जो नाक से प्रवेश करके तन व् मन को ताजगी और सकूं से भर दे,स्वतंत्र रूप से बहने वाली छोटी-छोटी धाराएँ और उनका ठंडा और मीठा पानी जिसे कोई भी पी कर खुद को नई ताकत और ताज़गी से भर सकता था,
आसपास का वातावरण प्रदूषण से मुक्त, कोई भारी वाहन नहीं, बल्कि सड़कों पर वाहनों की संख्या नगण्य, लोग हाथों में छाता लेकर छोटी पगडंडियों से स्वतंत्र रूप से गुज़रते हुए, दूर तक जहां भी निगाह जा सके, पर्वतमाला और वन से भरपूर सारा इलाका। सेब, प्लम, चेरी और फलों की अन्य कई किस्मों के बगीचे, घरों की छतों के साथ-साथ अन्य इमारतों की छतें स्लेट और लकड़ी से बनी थीं, कोई सीमेंट, लोहा के बड़े खंभे नहीं। छोटे-छोटे बाज़ार, कहीं पार्किंग की कोई समस्या नहीं, कोई भीड़-भाड़ नहीं, सभी का शांतिपूर्ण और संतुष्ट
जीवन। कालका से शिमला तक टॉय ट्रेन की यात्रा घने वन क्षेत्रों से होकर गुज़रती थी, ट्रैक के दोनों तरफ जंगल थे, तथाकथित राजमार्गों पर सड़कों के दोनों किनारों पर बड़ी संख्या में पेड़ थे। ऐसा था हिमाचल, क्या हम कह सकते हैं कि आज भी ऐसा ही है?
क्या पुरानी पीढ़ी के हिमाचलियों में से किसी ने कभी सोचा था कि मल्टी स्टोरी पार्किंग होंगी? पार्किंग के बारे में क्या कहें, यहां तक कि सात मंज़िला होटलों की भी कभी कल्पना नहीं की गई थी और वह भी शिमला के मॉल रोड पर? गर्मियों के दिनों में जब कोई परवाणू पार करता था तो हवा में ठंडक शुरू हो जाती थी और आजकल सोलन पार कर के भी हवा में वह ठंडक गायब है। गर्मियों के दौरान शिमला और कुल्लू मनाली जाना सर्दियों के उचित कपड़ों के बिना कभी नहीं होता था। अब तो मौसम का ऐसा हाल है कि सोलन तक गर्मियों में पंखों की जरूरत पड़ती है और शिमला भी इसमें पीछे नहीं है। क्या कभी किसी ने सोचा था कि दाड़लाघाट और उसके आसपास हर दिन सैकड़ों ट्रक गुजरेंगे और ट्रैफिक जाम, डीजल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, ट्रकों के लिए पेड़ों को काट कर सड़कों को चौड़ा किया जायेगा?
कृषि, बागवानी, फलों की खेती बुनियादी व्यवसाय थे और हिमाचल भारी या मध्यम उद्योगों के लिए है भी नहीं है। राजमार्गों को चौड़ा किया जा रहा है, पेड़ काटे जा रहे हैं, फ्लाईओवर बनाए जा रहे हैं, सुरंगें खोदी जा रही हैं, ये सब विकास के नाम पर है। पर्यटक गंतव्य पर तीस मिनट पहले पहुंच जाएँ, तो क्या इसका मतलब यह है कि पूरे पहाड़ी वातावरण, स्थल कृति के साथ इस तरह खिलवाड़ किया जाए कि वह अपनी पहचान खोने लगे? (लेकिन क्या वे वास्तव में तीस मिनट पहले पहुंच रहे हैं क्योंकि यातायात भी काफी बढ़ रहा है यह एक बहस का मुद्दा है) और अगर लोग आधे घंटे या एक घंटे पहले भी पहुंच जाएं तो इसमें कौन सी बड़ी उपलब्धि है और उन्हें क्या हासिल होगा?
पहाड़ी शहरों में बहु मंजली इमारतें, पार्किंग, जल विद्युत परियोजनाओं के लिए सुरंगें, भूकंप, बाढ़, भूमि के कटाव व् भू स्खलन के लिए एक खुला निमंत्रण हैं। बढ़ते तापमान के परिणामस्वरूप जंगलों में आग लग रही है, प्राकृतिक संसाधन घट रहे हैं और पीने के पानी की कमी हो रही है। भारत की वन स्थिति रिपोर्ट एक द्विवार्षिक प्रकाशन है। 2021 की रिपोर्ट केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री, भूपेन्द्र यादव द्वारा 13 जनवरी, 2022 को जारी की गई। इसके अनुसार हिमाचल प्रदेश का खुले और मध्यम घने जंगल (वृक्ष छत्र घनत्व 40 प्रति शत या उससे अधिक लेकिन 70 प्रति शत से कम) का नुकसान हुआ है। रिपोर्ट में 2030, 2050 और 2080 के अनुमानों के आधार पर भारतीय जंगलों में जलवायु परिवर्तन के हॉटस्पॉट का भी मान चित्रण किया गया है। इसने भविष्यवाणी की कि हिमालय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों जैसे लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में तापमान में अधिकतम वृद्धि दर्ज की जाएगी और संभवतः वर्षा में भी कमी आएगी। हिमाचल और पंजाब के बीच की पहाड़ियाँ एक महत्वपूर्ण जल क्षेत्र के रूप में भी कार्य करता है वहां कई विकासात्मक गतिविधियां हो रही हैं पहाड़ियों को सड़कों के निर्माण के लिए समतल किया जा रहा है शहरी बस्तियों के साथ-साथ औद्योगिक प्रतिष्ठान भी बनाये जा चुके हैं और बन भी रहे है। जंगली वनस्पतियां और जीव-जंतु खतरे में पड़ रहे हैं, अत्यधिक कटाई के कारण कई औषधीय पौधों की प्रजातियाँ खतरे में हैं।
इस लेख में मैं जो कुछ भी उल्लेख कर रहा हूं वह वे तथ्य हैं जो लोगों, राजनेताओं और नौकरशाहों को स्पष्ट रूप से ज्ञात हैं। और उनका यह भी मानना है कि जो हो रहा है वह वास्तव में बहुत नुकसानदेह है, लेकिन फिर भी ऐसा हो रहा है। सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है और हर राजनीतिक दल लुकाछिपी की भूमिका क्यों निभा रहा है? हिमाचल की समस्याएं हर नागरिक और पार्टी के लिए समान हैं जिस पर पूर्ण सहमति होनी चाहिए, हर पार्टी का साझा एजेंडा बिंदु एक होना चाहिए, कार्य और कार्य योजना में थोड़ी भिन्नता हो सकती है और सुस्ती हो सकती है। लोगों को भी प्रमुख भूमिका निभानी होगी लेकिन हालात ये हैं कि हर किसी के पास बहुत ही अल्पकालिक एजेंडे और लक्ष्य हैं और हिमाचल इस तरह से जीवित नहीं रह सकता है। कृपया सोचें और जागें अन्यथा कुछ पीढ़ियों के बाद मैदानी और पहाड़ी इलाकों में ज्यादा अंतर नहीं रह जाएगा और लोग किताबों में यही लिखा हुआ पढ़ेंगे कि पुराने जमाने में एक था हिमाचल।



