

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी
बाजार में बिकती शिक्षा
शिक्षा का अंतिम उद्देश्य क्या है? एक छात्र अपना और अपने परिवार का आर्थिक रूप से भरण-पोषण करने की स्थिति में हो जाए, क्या यही एकमात्र लक्ष्य और उद्देश्य है या इसके साथ कुछ और भी, कुछ बड़ा भी जुड़ा हुआ है? शिक्षा प्राप्त करने की सीमा क्या है? क्या यह व्यक्ति की आर्थिक क्षमता या व्यक्तिगत आकांक्षाओं या समाज की जरूरतों और मांगों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है? क्या शिक्षा के साथ कोई सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक पहलू भी जुड़ा है या यह सिर्फ और सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण ही है? यदि हम अपने मन में इन प्रश्नों पर विचार करने का प्रयास करें, तो निश्चित रूप से हमें एहसास होगा कि पिछले कुछ दशकों से शिक्षा परिदृश्य और इसके पीछे के मुख्य उद्देश्य में भारी बदलाव आया है।
शिक्षा की भूमिका एवं उद्देश्य मुख्यतः आर्थिक ही हो गया है। बाजार शिक्षा नीतियों को नियंत्रित कर रहा है या शिक्षा नीतियां बाजारोन्मुखी हो गई हैं, यह कहना मुश्किल है, लेकिन निश्चित रूप से शिक्षा प्रणाली वैसी नहीं रही जैसी पहले हुआ करती थी। शिक्षा की एक विविध भूमिका और उद्देश्य था जिसे हासिल किया जाना था और वह था मनुष्य का सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और बौद्धिक विकास; निःसंदेह आर्थिक दृष्टिकोण भी सह-अस्तित्व में था। वे उद्देश्य कहाँ हैं? आजकल शिक्षा को केवल एक ही चीज़ से जोड़ा जाता है और वह है पैकेज।
जब छात्रों को उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कॉलेजों में प्रवेश लेते हुए देखते हैं, और उनसे बातचीत करते हैं तो उनके लिए केवल एक चीज मायने रखती है कि स्नातक या समकक्ष डिग्री पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद उन्हें कितनी जल्दी व् कितना पैकेज मिल सकता है।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि बच्चे साक्षात्कार और प्लेसमेंट ड्राइव में सफल हों, उन्हें कुछ बुनियादी मापदंडों के बारे में पढ़ाया, सिखाया और जागरूक किया जाता है जैसे कि खुद को कैसे प्रस्तुत करना है, कैसे चलना है, कुछ प्रश्नों का उत्तर कैसे देना है, शारीरिक भाषा, हावभाव, लहजा आदि। किसी भी सामाजिक व्यवस्था में ये बातें बहुत ज्यादा मायने रखती हैं। लेकिन, व्यक्तित्व के एक भाग के रूप में तौर-तरीके, उनके व्यवहार के रूप में शिष्टाचार, नैतिकता के स्वीकृत स्तरों के अनुसार कार्य, वह भाषा जो एक सुसंस्कृत व्यक्ति को दूसरों के साथ बातचीत करते समय उपयोग करनी चाहिए, वरिष्ठों के लिए सम्मान और आदर; इसी तरह ऐसे कई अन्य कार्य और बातें हैं जिन्हें सिखाया नहीं बल्कि उन्हें दैनिक व्यवहार व् जीवन शैली में शामिल किया जाना चाहिए। हमारी सांस्कृतिक विरासत को जानने और समझने के लिए, उन चीजों और कार्यों को उजागर करने के लिए जिन्हें व्यावहारिक रूप से दैनिक जीवन में लागू किया जा सकता है, सहिष्णुता की भावना, बातचीत करने की क्षमता, सुनने की क्षमता और चीजों पर तर्कसंगत और तार्किक रूप से विचार-विमर्श करने की तीक्ष्णता। ये बातें कौन सिखाएगा? स्कूलों और कॉलेजों में बड़े पैमाने पर नकल और उसका ग्लैमराइज़ संस्करण, अनुबंध के आधार पर शिक्षकों की भर्ती और अनुबंध शिक्षकों द्वारा उप अनुबंध के माध्यम से कार्य पूरा करवाना, क्या आपको लगता है कि इन तरीकों से हम कह सकते हैं कि बच्चों को वास्तव में शिक्षित किया जा रहा है? जो शिक्षक नियमितीकरण की मांग को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं, वेतन वितरण का इंतजार कर रहे हैं, तय प्रक्रिया और व्यवस्था के तहत वेतन पैकेज बढ़ाए जाने का इंतजार कर रहे हैं, ऐसे में क्या शिक्षकों से वाकई बच्चों को शिक्षित करने की उम्मीद की जा सकती है? विश्वविद्यालय स्तर पर बड़ी संख्या में शैक्षणिक संस्थान फर्जी पाए गए हैं और फर्जी डिग्री भी दे रहे हैं, उन छात्रों का करियर क्या होगा जो प्रभावित हुए हैं? जो लोग ऐसे रैकेट में शामिल थे, उनका मुख्य मकसद सिर्फ पैसा कमाना था, और कुछ नहीं. यहां तक कि अगर हम विभिन्न पाठ्यक्रमों पर नजर डालें, तो उन्हें असामान्य देरी के साथ संशोधित किया जाता है, जिससे समाज और उद्योग की मांग और छात्रों को क्या पढ़ाया जाता है, के बीच एक बड़ा अंतर पैदा होता है और परिणामस्वरूप छात्र तलाश में दूसरे देशों में चले जाते हैं। कई राज्यों में प्लस टू उत्तीर्ण किए बिना स्नातक स्तर पर डिग्री प्रदान करने के मामले सामने आए हैं या ऐसा कुछ, अब किस प्रकार की फसल होगी ऐसे में जिस को कोई क्या काटेगा? देश व् समाज की बरबादी के सिवाय। समस्याएँ विकराल हैं, समाधान कहीं नहीं हैं, अज्ञानी राजनेता, समय निकालती नौकरशाही और जंग लगे शिक्षा शास्त्री जो भी कर रहे हैं वो देश व् समाज के लिए नहीं बल्कि बाज़ार की मांग व् पूर्ति के हिसाब से लगे हुए हैं। जिस देश की शिक्षा व्यवस्था चिरमिराई हुई होती है, वह देश तार्किक, विवेक पूर्ण और वैज्ञानिक दृष्टि से आगे नहीं बढ़ पाता। इस समय अंधेरा है और सुरंग के अंत में कोई प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा है। लेकिन, हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि लोगों की चेतना उन्हें अंदर से जगाएगी.



