
रिटायर्ड मेजर जनरल ए के शौरी
यक्ष प्रश्न – 9
धर्म और तपस्या
यक्ष रुका नहीं और तरह-तरह के सवाल पूछता रहा। युधिष्ठिर भी बहुत ही शांत भाव और शांतिपूर्ण तरीके से उनके सभी सवालों का जवाब दे रहे थे। यक्ष निश्चित रूप से बहुत अधिक संतुष्ट भी था और युधिष्ठिर के ज्ञान से अत्यधिक प्रभावित था। वे इस तथ्य से भी प्रभावित थे कि उनके प्रश्न विभिन्न विषयों पर हैं

और युधिष्ठिर को उन सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए पर्याप्त ज्ञान है। प्रश्नों की झड़ी लगा कर वह युधिष्ठिर से और प्रश्न पूछने लगा। यक्ष ने पूछा – “तप का लक्षण क्या कहा गया है? और सच्चा संयम क्या है और शर्म क्या है?” युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, – “स्वयं के धर्म में रहना तपस्या है: मन का संयम सभी संयम का सच्चा है, और शर्म की बात है, सभी अयोग्य कार्यों से पीछे हटना।
दरअसल, धर्म क्या है और किसी का धर्म क्या है, इन्हें समझने की कोशिश करते हैं. एक पुत्र का अपने माता-पिता के प्रति क्या धर्म है, एक शिक्षक का अपने शिष्यों के प्रति और इसके विपरीत क्या धर्म है? इसी प्रकार एक शासक का अपनी प्रजा के लिए क्या धर्म है? सूर्य, चन्द्रमा, वायु, प्रकाश आदि का उदाहरण लेकर इसे इस प्रकार समझने का प्रयास करते हैं। उनका धर्म क्या है? उनका धर्म उनकी विशेषताओं के अनुसार कार्य करना है जिसके द्वारा और जिस कार्य को करने हेतु उनका गठन हुआ है और जिसका पालन करने के लिए उन्हें माना जाता है। इसलिए जब युधिष्ठिर कहते हैं कि किसी के स्वयं के धर्म में होना और उसके गुणों के अनुसार किए जाने वाले कर्म- यही ही तपस्या है, तो यह एक बहुत सूक्ष्म बात है। अब किसी को स्वयं के गुणों के अनुसार कार्य करना बहुत कठिन है क्योंकि किसी को पहले यह जानने की आवश्यकता है कि उसके गुण क्या हैं। लोगों को गुणों को समझाने के लिए, शास्त्र, शिक्षक और विद्वान लोग हैं जो मदद, सलाह और मार्गदर्शन करते है।
इसके बाद युधिष्ठिर मन के संयम के बारे कहते हैं कि मन का संयम ही सबसे सच्चा है। मन का संयम सच्चा ही नहीं, सबसे खरा व् पवित्र होता है और मन के संयम पर नियंत्रण रखना आसान नहीं होता, यह भी एक प्रकार की तपस्या ही होती है। मन पर संयम रखने के पहले अपने मन, इच्छाओं, लालसाओं पर नकेल डालना होता है जो कि आसानी से नहीं हो सकता। इसके लिए दृढ़ चरित्र, दृढ़ संकल्प और आत्म अनुशासन की आवश्यकता होती है, यही कारण है कि इसे तपस्या समान माना जाता है। क्षमा के बारे में युधिष्ठिर कहते हैं कि सभी अयोग्य कार्यों से पीछे हटना ही क्षमा है तो इसका मतलब यह निकलता है कि किसी भी अयोग्य कार्य से परे हट जाने को, स्वयं को उससे अलग कर लेने को ही क्षमा का दूसरा स्वरूप समझा जाये।




