

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी
देवभूमि की पुकार
देव भूमि, जहां देवता निवास करते हैं, शुद्ध, पवित्र और शांतिपूर्ण भूमि जिस पर कोई जैसे ही कदम रखे तो वहां की ताजी और स्वस्थ वायु एकदम से दिल और दिमाग को साफ कर देती है। चीड़ के पेड़ों की खुशबू एक रोमांचित अहसास देती है और ऊंचे-ऊंचे देवदार के पेड़ सुरक्षा का अहसास कराते हैं। ऐसा तब होता है जब कोई देव भूमि में प्रवेश करता है, लेकिन जैसे ही कोई देवभूमि के और अंदर जाता है, ऊपर की तरफ चढ़ता है, तो मन में थॉमस हार्डी द्वारा लिखित उपन्यास: फार फ्रॉम द मैडिंग क्राउड” दिमाग में आता है, क्योंकि जिस सकून व् शान्ति की तलाश में इंसान देव भूमि में दाखिल होता है, वैसा ही मन में अहसास सा आना प्रारम्भ हो जाता है। ये सब जो मैंने बताया, क्या ये सच में आजकल होता है या पहले कभी हुआ करता था? क्या देव भूमि ऐसी ही है या कुछ दशक पहले यह ऐसी हुआ करती थी?
हिमाचल प्रदेश के साथ मेरा जुड़ाव पिछले 60 वर्षों से है। मेरी दादी समरहिल में रहती थीं और हम हर साल उनसे मिलने जाते थे। ऐसा लगभग दो दशकों तक हुआ और बाद में सरकारी सेवा में आने के बाद मुझे शिमला में काम करने का अवसर मिला। मैंने देखा है कि पहाड कैसे बदल गए हैं, बदलने की बजाय मैं कहूँगा इसको खोद कर और काट फांट कर इनका स्वरूप और आकार ही छोटा और सिमटा सा कर दिया गया है। पिछले पचास वर्षों से हिमाचल में कितने चीड़ के पेड़ बचे हैं? हिमाचल के अस्तित्व में आने के बाद से कितने देवदार के पेड़ बचे हैं? मुझे याद है कि जैसे ही हम चंडीगढ़ से हिमाचल में प्रवेश करते थे, परवाणु पार करते ही हवा में ठंडक शुरू हो जाती थी। अब तो सोलन या कंडाघाट पार करने से पहले ऐसा नहीं होता है। संजौली या बालूगंज से शिमला की ओर बस में जाने के बारे में किसी ने कभी नहीं सोचा था। आजकल लोग स्कूटरों, बसों और कारों पर अपने कार्यालयों और कार्य स्थलों पर जा रहे हैं, हालांकि वे मॉल रोड और छोटा शिमला के आसपास स्थित हैं। कुछ दशक पहले शिमला शहर को कवर करने के लिए कितनी स्थानीय बसें थीं? शायद कोई नहीं. सोलन में तो पंखे भी चलते हैं और कोई बड़ी बात नहीं कि शिमला में भी इनकी ज़रूरत पड़ जाय। प्राकृतिक जल इतना मीठा और स्फूर्तिदायक था कि इसे पीने के बाद व्यक्ति स्वस्थ और तरोताजा महसूस करता था।
राजमार्ग, पुल, उद्योग, बांध आदि बनाने में कोई समस्या नहीं है, लेकिन क्या यह पर्यावरण की कीमत पर होना चाहिए? यदि अधिक पर्यटक हिमाचल आ रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन क्या हमें वास्तव में बहुमंजिला पार्किंगों की कतारें बनाने की जरूरत है, जो थोड़ी सी भी मिट्टी खिसकने पर ढह सकती हैं? स्थानीय युवाओं को रोजगार मिल सके, इसके लिए उद्योग बसाने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन क्या ऐसा होना चाहिए कि हजारों की संख्या में भारी ट्रक पहाड़ों में दौड़ने लगें, जिससे प्रदूषण और जाम की स्थिति पैदा हो? बिजली और ऊर्जा की जरूरत है लेकिन क्या बड़े बांध बनाने और पहाड़ों में लंबी सुरंगें खोदकर ही ऐसा किया जा सकता है? बिना किसी दीर्घकालिक दृष्टि के संवेदन हीन योजना बनाई जाए और सरकारी धन (जो वास्तव में सार्वजनिक धन है) को अनुबंधों के माध्यम से चहेतों को मिले, कहीं ऐसा तो नहीं हुया है देव भूमि के साथ? पिछले कुछ दशकों में वास्तविक वन क्षेत्र का दायरा कम हो गया है, वनों की कटाई, औद्योगीकरण और वाहनों की बढ़ती संख्या पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन को प्रभावित कर रही है। भीड़भाड़ के कारण पर्यटक भी दूसरे स्थानों की ओर रुख कर रहे हैं। देवभूमि इंसान को संकेत दे रही है कि मैं जैसा हूं वैसा ही रहने दे लेकिन इंसान इसे समझ नहीं रहा है। अल्पकालिक उद्देश्य और कमज़ोर योजना, जनसंख्या में वृद्धि और उद्योग पर अधिक ध्यान, घटते जल संसाधन और हवा की गुणवत्ता का कम होना; देवभूमि में ये सब हो रहा है. खंभों को ऊंचा करके बहुमंजिला पार्किंग बनाना प्रगति का प्रतीक नहीं बल्कि आसन्न खतरे की चेतावनी है। इसके लिए एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो राजनीति से ऊपर होना चाहिए। इसका मतलब यह भी है कि किसी भी राजनीतिक दल की परवाह किए बिना राज्य के लिए एक साझा एजेंडा होना चाहिए। क्या यह हो सकता है? देवभूमि को उसके प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप देखभाल की आवश्यकता है, वह रो रही है और यदि मानव ने उसके संकेतों पर ध्यान नहीं दिया, यदि उसने कभी अपनी दिशा बदली तो परिणाम विनाशकारी होंगे। क्या कोई है जो इस पुकार को सुन सके?


