
लेखक — असर मीडिया हाउस डेस्क
श्रेणी — शिक्षा / समाज / मानसिक स्वास्थ्य
🔴 परिचय: एक खतरनाक संकेत
भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में से है,
लेकिन दुर्भाग्य से छात्र आत्महत्या के मामलों में भी शीर्ष पर है।
बोर्ड परीक्षाएँ, प्रतियोगी परीक्षाएँ, कोचिंग कल्चर, और घर-समाज का मानसिक दबाव—
ये सभी एक ऐसे वातावरण को जन्म दे रहे हैं जहां बच्चे अत्यधिक तनाव, असफलता का भय,
और अकेलेपन का सामना करते हैं।
हर साल हजारों बच्चे सिर्फ इसलिए अपनी जान दे देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि
असफलता = जीवन समाप्त।
यह सोच स्वयं समाज ने पैदा की है।
1. स्कूली बच्चों में आत्महत्या बढ़ने के मुख्य कारण
1️⃣ अंकों की दौड़ और असफलता का भय
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बच्चों को बचपन से यह सिखाया जाता है कि “अच्छे नंबर ही जीवन का भविष्य तय करते हैं”
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90%+ लाने की होड़ में जो बच्चा थोड़ा पीछे रह जाए, उसे हीन भावना घेर लेती है
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बच्चों में यह मिथक बैठ गया है: कम नंबर = कोई मूल्य नहीं
2️⃣ माता-पिता की अपेक्षाएँ और तुलना
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“देखो शर्मा जी का बेटा…” जैसी तुलना
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दूसरे बच्चों की उपलब्धियों को मापदंड बनाकर दबाव डालना
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प्यार और समर्थन की जगह डांट और निराशा
3️⃣ कोचिंग कल्चर और प्रतियोगी परीक्षाओं का बोझ
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JEE/NEET/SSC जैसे एग्ज़ाम आज मानसिक युद्ध बन गए हैं
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कोचिंग संस्थानों में
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12–14 घंटे की पढ़ाई
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रैंकिंग सिस्टम
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निरंतर टेस्ट
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कठोर अनुशासन
बच्चों को मशीन बना देता है, इंसान नहीं।
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4️⃣ सोशल मीडिया का दबाव
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इंस्टाग्राम/रील्स पर दूसरों की “सफल ज़िंदगी” देखते-देखते
बच्चा अपनी वास्तविक ज़िंदगी को “फेल” मानने लगता है -
साइबर बुलिंग, FOMO (Fear of Missing Out), तुलना—बच्चों के दिमाग को अस्थिर करते हैं
5️⃣ अकेलापन, संवाद की कमी, भावनाओं को दबाना
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बच्चे अपनी भावनाएँ व्यक्त नहीं कर पाते
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“मर्द बनो, रोते नहीं” जैसे वाक्य लड़कों को भीतर ही भीतर तोड़ते हैं
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स्कूल और घर, दोनों जगह उनकी भावनात्मक ज़रूरतों को अनदेखा किया जाता है
6️⃣ स्कूलों का अनुशासन आधारित वातावरण
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स्कूल सिर्फ अंक और टॉपर बनाने पर केंद्रित
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काउंसलिंग व्यवस्था कमजोर या नहीं के बराबर
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छात्रों को ‘मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा’ का अभाव
2. समाज की भूमिका: हम कहाँ विफल हो रहे हैं?
1️⃣ सफलता को केवल करियर और पैसों से जोड़ देना
हमने यह तय कर दिया है कि
“इंजीनियर, डॉक्टर, IAS = सफल”
बाकी सभी रास्ते “दूसरे दर्जे” माने जाते हैं।
यह सोच बच्चों की विविध क्षमताओं को नष्ट करती है।
2️⃣ असफलता को शर्म की तरह देखना
जब बच्चा फेल होता है तो घर, रिश्तेदार, पड़ोसी—
सब उसे दोषी की तरह देखने लगते हैं।
समाज किसी बच्चे को गिरने पर उठना नहीं सिखाता,
बल्कि गिरने का डर पैदा करता है।
3️⃣ मानसिक स्वास्थ्य को “डरपोकपन” मानना
“डिप्रेशन? अरे मन का वहम है!”
“थोड़ा बार निकलो, ठीक हो जाओगे!”
“इतनी भी क्या टेंशन?”
इन संवादों ने बच्चों को भावनात्मक रूप से और ज्यादा अकेला किया है।
4️⃣ मोबाइल और सोशल मीडिया ने संवाद खत्म किया
बच्चे अकेले, माता-पिता व्यस्त,
कोई नियमित बातचीत, भावनात्मक जुड़ाव नहीं—
यह आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण बनता जा रहा है।
3. स्कूलों की भूमिका और कमजोरियाँ
1️⃣ काउंसलिंग की अनिवार्यता नहीं
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भारत के 90% स्कूलों में Full-Time Counselor नहीं है
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बच्चों को अपनी समस्याएँ कहने का कोई मंच नहीं
2️⃣ टॉपर-केंद्रित शिक्षा
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स्कूल बच्चों को “प्रतियोगी” बनाते हैं, “मानव” नहीं
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Creativity, Emotional Intelligence, Empathy—कोई जगह नहीं
3️⃣ रैंकिंग और पब्लिक शेमिंग
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असेंबली में रैंक बताना
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कम नंबर वाले बच्चों को डांटना
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क्लास में तुलना करना
यह सब बच्चों को शर्म और तनाव से भर देता है
4️⃣ टीचर्स का प्रशिक्षण कमजोर
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अधिकतर शिक्षकों को
छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को समझने की ट्रेनिंग नहीं दी जाती
4. समाधान: कैसा होना चाहिए बच्चों की शिक्षा का मॉडल?
नीचे वे मूल बातें हैं जो आत्महत्या रोकने के लिए सबसे ज़रूरी हैं:
🌱 A. भावनात्मक शिक्षा (Emotional Literacy) अनिवार्य हो
बच्चों को सिखाना होगा कि:
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तनाव क्या होता है
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उदासी, गुस्सा, डर—इनसे कैसे निपटें
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बात करना कमजोरी नहीं, ताकत है
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गलतियाँ जीवन का हिस्सा हैं
स्कूलों में Life Skills Period अनिवार्य होना चाहिए।
🤝 B. संवाद आधारित पैरेंटिंग
माता-पिता को:
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बच्चे से रोज़ 15 मिनट भावनात्मक बातचीत
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नंबर/रैंक नहीं, प्रयास और ईमानदारी की सराहना
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तुलना बंद
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बच्चों की रुचियों को महत्व देना
पैरेंटिंग में “प्यार + अनुशासन + संवाद” का संतुलन जरूरी है।
🎨 C. बहुआयामी शिक्षा: हर प्रतिभा को समान महत्व
एक बच्चा:
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गाने में अच्छा
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खेल में शानदार
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चित्रकारी में प्रतिभाशाली
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तकनीक में रुचि रखने वाला
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विज्ञान में कमजोर
यह सब सामान्य है।
स्कूली शिक्षा को
“सबको एक जैसा बनाने” की जगह
“हर बच्चे की अलग क्षमता को निखारने” वाला होना चाहिए।
⚖️ D. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा + मानसिक संतुलन
प्रतिस्पर्धा जरूरी है, लेकिन:
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हार का डर नहीं,
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सीखने का अवसर केंद्र में होना चाहिए
बच्चों को यह सिखाया जाए कि—
“सफलता कभी अंतिम नहीं, असफलता कभी घातक नहीं।”
🧠 E. स्कूलों में Counseling System अनिवार्य
हर स्कूल में:
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Full-time मनोवैज्ञानिक
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Peer Support Groups
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Stress-Relief Workshops
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Anti-bullying टीम
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Safe Reporting Mechanism
ज़रूरी है।
📵 F. सोशल मीडिया का Balanced उपयोग
बच्चों को सिखाया जाए:
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ऑनलाइन तुलना न करें
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स्क्रीन टाइम सीमित
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साइबर बुलिंग से निपटना
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डिजिटल डिटॉक्स का महत्व
📚 G. परीक्षा-केंद्रित नहीं, जीवन-केंद्रित शिक्षा
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स्कूल प्रोजेक्ट आधारित शिक्षा दें
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सफलता को “करियर” से नहीं, “चरित्र” और “कौशल” से जोड़ें
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परीक्षा की असफलता को जीवन की असफलता नहीं बताया जाए
निष्कर्ष: बच्चों को नंबर नहीं, जीवन जीना सिखाना होगा
भारत के बच्चों पर
अंक, रैंक, प्रतिष्ठा और प्रतियोगिता का इतना भारी बोझ रखा जा चुका है कि
वे जीवन को एक दौड़ समझ बैठे हैं।
समाधान यह है कि हम उन्हें सिखाएँ—
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असफल होना गलत नहीं
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मदद मांगना कमजोरी नहीं
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हर बच्चा अलग और महत्वपूर्ण है
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जीवन किसी एक परीक्षा का नाम नहीं
जब समाज, स्कूल और परिवार
मिलकर एक सहयोगी और संवेदनशील वातावरण बनाएँगे,
तभी हम बच्चों को आत्महत्या जैसे कदमों से बचा पाएँगे।


