
मैं भी आप सभी की तरह हिंदी प्रेमी हूँ। लेकिन कुछ सवाल मुझे भी चिंतित करते हैं। हमारे देश का राष्ट्रीय पक्षी है, फूल है, यहां तक कि राष्ट्रीय पेड़ है लेकिन राष्ट्रभाषा नहीं। कहां कमी रह गई? इसके मूल कारणों पर विचार- विमर्श करने की जरुरत है। इससे संबंधित कुछ पंक्तियाँ आपके समक्ष प्रस्तुत है।
“खुश हुआ नहीं जा सकता”
मैं मानती हूँ की आप मेरे होने की बात तो कर रहे हैं…
लेकिन सिर्फ इससे,
खुश हुआ नहीं जा सकता।
छोटे छोटे गमलों में मेरी पौध लगाकर,
मेरे बरगद बनने का सपना..
पूरा नहीं हो सकता।
चुप हूँ, खामोश हूँ,
पंक्ति में खड़ी, इंतज़ार कर रही, अपनी बारी का…
एक डर है..
कब निकाल दी जाऊँ,
इस अहसास से,
खुश हुआ नहीं जा सकता।
सब कहते हैं,
संगोष्ठियां हो रही हैं,
तुम्हारे लिए,
आख़िरकार प्रेमी हैं तुम्हारे…
फ़र्ज़ है हमारा,
शायद शादी हो या न हो,
इस अहसास से,
खुश हुआ नहीं जा सकता।
कोई कहता है -एक धर्म की भाषा है,
कोई कहे एक प्रदेश की भाषा है,
मैं तो एक भाषा हूँ,
इस दुविधा में,
खुश हुआ नहीं जा सकता।
वीरान मरुथल में छोड़ दिया है मुझे,
कहीं छोटी छोटी पानी की फुहार,
मुझे गिला कर देती है,
जिंदा रहना है मुझे,
लेकिन अपने अंतर्द्वंदों के साथ,
खुश हुआ नहीं जा सकता।
मुझे स्थान चाहिए,
मुझे सम्मान चाहिए,
इन बाहरी आडम्बरों में,
खुश हुआ नहीं जा सकता।
अपने लिए ही सही,
आ जाईए, एक मंच पर,
जहाँ सिर्फ मैं हूँ, न हो कोई सवाल,
नवाज़ा जाए राष्ट्रभाषा के ताज़ से मुझे,
इस पल से खुश हुआ जा सकता है।
.. -निधि शर्मा
स्वतंत्र लेखिका




