सम्पादकीय

असर संपादकीय: स्वच्छ पर्यावरण भी अब मानवाधिकार

निधि शर्मा (स्वतंत्र लेखिका की कलम से

 

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को मानवाधिकार संबंधित सार्वधम घोषणा पत्र को मान्यता किये जाने पर हर वर्ष 1950 से यह दिन विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष इस दिवस की थीम गरिमा, स्वतंत्रता और सभी के लिए न्याय रखी गई है। बेशक यूएनओ के घोषणा पत्र में भाषा, नस्ल रंग, लिंग, धर्म एवं राजनैतिक भाव आदि के आधार पर कोई असमानता नहीं की जानी चाहिए से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख किया गया है लेकिन आज विश्वभर का ज्वलंत मुद्दा स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार भी मानवाधिकारों की सूची में समान भाव के साथ शामिल किया जाना चाहिए। तभी सही मायने में विश्व की 800 करोड़ जनसंख्या के साथ न्याय किया जा सकता है। बेशक अभी हाल में ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वच्छ वातावरण के अधिकार को मानवाधिकरों में शामिल करने के लिए एक शानदार कदम उठाया है लेकिन यह कदम विकसित एवं विकासशील व अविकसित देशों के बीच असामनता का कारण बन गया है। इस मुद्दे पर भारत का कहना है। कि पर्यावरणीय स्वच्छता, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण के उद्देश्य के लिए सभी को समान रूप से काम करना चाहिए लेकिन इसके प्रति जवाबदेही अर्थव्यवस्था के हिसाब से सभी देशों की भिन्न होनी चाहिए क्योंकि

 

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अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए की गई काफ्रेंस के उद्देश्य अभी तक भी विकसित देशों पूरे नहीं किए गए हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहला पर्यावरण सम्मेलन स्टॉकहोम 1972 में आयोजित किया गया था जिसके उद्देश्य आज तक भी जमीनी स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने का सबसे अधिक मानवाधिकार उल्लंघन विकसित देशों ही किया जा रहा है। द्वारा

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अगर हम अपने देश में स्वस्थ पर्यावरण के मानवाधिकार की चर्चा करें तो, हमारे संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। संविधान में उल्लेखित नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 47 में कहा गया है कि सरकार का कर्तव्य है कि लोगों के जीवन स्तर व पोषक स्तर को ऊपर उठाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करें और अनुच्छेद 48 ए में प्रावधान है कि सरकारों को पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार तथा देश के वनों एवं वन्यजीनों की रक्षा सुनिश्चित करे । इसके साथ-साथ अनुच्छेद 51ए में उल्लेखित मूल कर्तव्यों में एक कर्तव्य वन, झील, नदी और वन्य जीवों की सुरक्षा और सवर्धन की बात करता है। यानि की संविधान में सरकार और जनता दोनों की भागीदारी पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए शामिल की गई है। क्योंकि सिर्फ कानून ही पर्यावरण को बचा नहीं सकते बल्कि लोगों को भी स्वयं अपने पर्यावरण संबंधित मानवाधिकारों को सुरक्षित करने के लिए आगे आना चाहिए। बेशक भारत की न्याय व्यवस्था ने अनुच्छेद 21 के तहत लोगों द्वारा खड़े किए गए स्वस्थ व सतत पर्यावरण के लिए कई आंदोलन की आवाज़ को और प्रबल

 

किया है लेकिन मुख्य समस्या यह है सामाजिक व आर्थिक असमानता विश्व में एवं अपने देश से भी पर्यावरण को मानवाधिकार बनने में सबसे बड़ी अड़चन पैदा करती है। क्योंकि विकसित देश अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए और आंतरिक तौर पर किसी भी देश के पूंजीपति पर्यावरण की अवहेलना करते हैं। इस परिपेक्ष्य में स्वस्थ व सतल पर्यावरण के प्रति जवाबदेही कौन सुनिश्चित करेगा? क्योंकि कमजोर की आवाज़ आर्थिक बाहुबलियों द्वारा रौंद दी जाती है। लेकिन यह समझना पड़ेगा कि सतत पर्यावरण ही मानवीय विकास की गाथा लिख भी सकता है और आने वाली पीढियों को बता भी सकता है। सबसे महत्वपूर्ण संयुक्त राष्ट्र को अपना आचित्य बचाने के लिए समान भाव से सभी सदस्यों की चिंताओं को समझ कर घोषणा करनी चाहिए ताकि किसी भी दिन की महता को गंभीर लिया जा सके।

Deepika Sharma

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