असर संपादकीय: मुफ्त रेवड़ियाँ नहीं, समान अवसर चाहिए
डॉ. निधि शर्मा (स्वतंत्र लेखिका) की कलम से..

हाल में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि लोगों को फ्रीबीज के माध्यम से मुख्यधारा में लाने के बजाय क्या हम परजीवियों का एक वर्ग तैयार नहीं कर रहें? सही मायने में ये टिप्पणी समाज के हर वर्ग एक सोचनीय प्रश्न का जवाब जानना चाहती है । विशेषकर इस वर्ग से जो देश के लगभग 50 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधत्व करती है महिला वर्ग । हर राजनैतिक पार्टी इस वर्ग की खुशहाली के लिए मुफ्त योजनाओं का सहारा लेकर चलना चाहती है । आलम ये है कि इस वर्ग की शिक्षित व अशिक्षित महिलाएँ भी इन योजनाओं का लाभ पाकर धन्य हो रही है । लेकिन कब तक ? हर वर्ष 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है ताकि उनके सम्मान व अधिकारों की बात की जा सके लेकिन यकीन मानें इस तरह के मुफ्त रिवायतों ने महिलाओं की सही समस्याओं एवं मुद्दों को कहीं पीछे धकेल दिया है ।
भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ हर दूसरा राज्य मुफ्त योजनाओं के कारण राजस्व घाटे का सामना कर रहा है । आर्थिक शोध एजेंसी क्रिसिल के मुताबिक राज्य अपने कुलराजस्व का 13 फीसदी हिस्सा कर्ज़ का ब्याज चुकाने में लगा रहे हैं । जबकि वित्त आयोग के मुताबिक कुल राजस्व का 10 फीसदी कर्ज़ चुकाने में खर्च नहीं होना चाहिए । इसमें भी चिंतनीय बात यह है कि राज्य कर्ज़ का अधिकतर हिस्सा सैलरी, पैंशन और मुफ्त की सेवाएँ देने में खर्च कर रहे हैं । कुछ योजनाएँ तो ऐसी हैं जो सही मायने में आत्मनिर्भर नहीं बल्कि विशेषकर महिला वर्ग को अप्रत्यक्ष तौर पर परावलंबन बना रही है । जहाँ हिमाचल प्रदेश में इंदिरा गाँधी प्यारी बहना सुख सम्मान निधि की पात्र महिलाओं को 1500 रुपये महीना, तेलंगाना में महालक्ष्मी योजना के तहत 2500, कर्नाटक में गृह लक्ष्मी योजना की पात्र महिलाओं को 200 रुपये, उड़ीशा में सुभद्रा योजना के तहत 10,000 हजार रुपये हर वर्ष, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश में लाडली बहन योजना के तहत 21 से 65 साल तक की महिलाओं को 1500 रुपये महीना, पंजाब में एक हज़ार और हाल में ही दिल्ली की वर्तमान सरकार ने 8 मार्च को चुनावी वादे के मुताबिक 2500 रुपये महीना पात्र महिलाओं के खाते में डालने की घोषणा कर दी है । आलम ये है कि तेलंगाना, कर्नाटक व पंजाब आदि में तो हर वर्ग की महिलाओं को मुफ्त बस की सुविधा भी दी जा रही है । इन कल्याण कारी योजनाओं के नाम पर क्रिसिल रेटिंग्स के मुताबक राज्यों का राजकोषीय घाटा कुल मिलाकर 1.1 लाख करोड़ रहने की उम्मीद है । हालांकि कुछ वर्षों में उत्तर भारत में राजनैतिक पार्टियों द्वारा सीधे खातों में पैसे भेजने की बात की जा रही है तब से आर्थिक बोझ ज्यादा बढ़ गया है हालांकि फ्रीबीज की शुरुआत दक्षिण भारतीय राज्यों द्वारा विशेषकर महिलाओं को मुफ्त साड़ी, कंबल, सिलाई मशीन, मिक्सर, टीवी, साईकिल एवं लैपटॉप द्वारा दी जाने से हुई । लेकिन फिर भी ये प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर पर पूंजीगत व्यय के तहत माना जाता था ताकि वहाँ की लोकल इण्डस्ट्री को उत्पादन का आर्डर मिलकर, वहीं के लोगों को भी रोजगार के अवसर मिल सकें । लेकिन बदलते समय के साथ वस्तुओं की जगह पैसे बांटने का चलन दुष्प्रभावी हो चुका है ।
इस परिस्थिति में समय रहते हर राजनैतिक पार्टी को समझना होगा कि देश के विकास के लिए निर्भर महिला वर्ग नहीं बल्कि आत्मनिर्भर महिलाएँ की संख्या में वृद्धि करनी होगी । समाज में महिलाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक तौर पर सक्षम न होना है उसके पीछे मुख्य कारण शिक्षा का अभाव व अवसरों का कम होना है । हालांकि स्कूल, कॉलेजों में शैक्षिक माहौल दिया जा रहा है लेकिन विशेषकर हाई स्किलऐजुकेशन में महिलाओं का स्तर बहुत नीचे है । हाल में ही विश्व बैक की एक रिपोर्ट ऐजुकेशन, सोशल नार्मस एण्ड मैरीज़ पैनल्टी के मुताबिक भारत में 13 से 14 प्रतिशत स्किल्ड महिलाएँ शादी के बाद जॉब छोड़ देती है । जबकि गाँव में तो महिलाओं के पास स्किल ऐजुकेशन के अवसर ना के बराबर है । हमारे समाज के मूल्य अगर समान अवसर की परिस्थितियाँ बनाएँ तो यकीन मानिए जमीनी स्तर पर मुफ्त की रेवड़ियाँ महिला वर्ग को बांटने की नौबत ही नहीं आएगी । इस बात को पुख़ता करने के लिए अभी हाल में ही वर्ल्ड इकनॉमिक फ़ोरम ने साल 2024 के लिए ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट प्रकाशित की है इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत 146 देशों में से 129वें स्थान पर है । जिसमें राजनीतिक सशक्तिकरण (77.5%), आर्थिकभागीदारी और अवसरों (39.5%), के मामलों में लैंगिग अंतराल सबसे ज्यादा है । जमीनी स्तर पर हालात इतने खराब है कि देश को पूर्ण लैंगिक समानता हासिल करने 134 साल लगेंगे ।
कोई भी राजनैतिक पार्टी एवं समाज के प्रबुद्ध जीवी मुख्य समस्याओं से कब तक आँखे मूंदे रहेंगें । हालांकि सरकारों द्वारा लखपत्ति दीदी जैसी कई योजनाओं शुरु की गई हैं लेकिन उनका लाभ तभी मिल सकता है जब महिलाओं के पास मार्किट की मांग के अनुसार स्किल ज्ञान होगा । ज़रूरत इस बात की है कि गाँव-गाँव तक स्किल सैंटर खोल दिए जाए और अनिवार्य तौर पर हर गाँव की महिला को पंचायत के माध्यम से ट्रेनिंग सुनिश्चित की जाए । क्योंकि जहाँ महिलाएँ सोशल मीडिया के माध्यम से कोने-कोने से अपने टैलेंट को दिखाने में माहिर हैं तो स्किल ज्ञान से देश को आगे बढ़ाने में भी पीछे नहीं हटेंगी । बस इच्छाशक्ति की ज़रूरत है । मुफ्त बांटने से तो कुँए भी सूख जाते हैं हालांकि वो रख-रखाव न होने के कारण सूख भी रहे हैं । बस जागिए, बस सरकार ही नहीं…….. हस सब ।



