सम्पादकीय

असर विशेष: फीके त्यौहार, भूले संस्कार

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी की कलम से

रिटायर्ड मेजर जनरल एके शौरी

त्यौहार शब्द ही इतना आकर्षक और रोमांचक है कि यह व्यक्ति को प्रसन्न, आनंदित और उत्साहित कर देता है। अपने युवा दिनों, स्कूल के दिनों, संयुक्त परिवारों के दिनों को अगर हम याद करें ,तब हृदय भाईचारे, परस्पर प्रेम, आदर और सम्मान की भावनाओं से भर जाता है। पुराने दिनों में त्योहार खुशी, उत्साह से भरे होते थे और बच्चे महीनों पहले ही उत्सव की गतिविधियों के बारे में सोचते और योजना बनाने काग जाया करते थे। बच्चे ही क्यों, बड़ों की भी यही भावना थी। होली, दशहरा, दीवाली और लोहड़ी मुख्य समारोह थे, हालाँकि कुछ अन्य त्यौहार भी थे, विशेषकर नवरात्र के दिन। यहां तक कि रक्षाबंधन का दिन भी उत्सव का दिन था।

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यह सूची लंबी है और त्योहारों से जुड़ी भावनाओं और संवेदनाओं की भी सूची लंबी है। सादगी, पवित्रता, निर्धारित रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करना उत्सव मनाने के मानक थे। न केवल एक परिवार के सदस्य बल्कि पड़ोसी भी एक बड़े परिवार का हिस्सा होते थे और विशेषकर गांवों में पूरा गांव उत्सव में शामिल एक परिवार की तरह होता था। दरअसल हमारा जीवन ही एक त्यौहार है जहां बच्चे के जन्म से पहले ही जीवन के हर पड़ाव पर जश्न शुरू हो जाता है। जिस दिन बच्चा जन्म लेता है, पहला कदम रखता है, दांत निकालता है, खाना शुरू करता है, स्कूल जाता है, सूची का अंत नहीं है। उत्सव मृत्यु के बाद भी मनाया जाता है जब परिवार के सदस्य इकट्ठा होते हैं और बुजुर्गों को याद करते हैं।
जीवन का वह आनंद कहां चला गया? कैसे जीवन इतना संकीर्ण, आत्म केन्द्रित और अलग-थलग हो गया है कि शहरों में लोगों को अपने घर के साथ के पड़ोसियों के बारे में भी पता नहीं चलता। यहां तक कि गांवों में भी जाति, उप जाति और धर्म के आधार पर समूह, उप समूह होते हैं। गांवों में त्योहारों का मुख्य उद्देश्य शक्ति प्रदर्शन हो गया है और शहरों में यह महज एक प्रतीकात्मक चीज बनकर रह गया है। समारोहों में गुंडागर्दी, उपद्रव, सस्ती अश्लीलता हावी हो रही है। दीवाली जैसे त्यौहार केवल उपहारों के आदान-प्रदान का माध्यम बनकर रह गए हैं ताकि अच्छा संपर्क स्थापित किया जा सके। होली छेड़खानी, शराब पीना और महिलाओं को परेशान करने का पर्याय बन गया है। अतीत में दशहरा का मतलब राम लीलाएं था, लेकिन उपलब्ध तकनीक के साथ, इसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हाईजैक कर लिया है। लकड़ियों की कमी, लोगों को धुएं से एलर्जी होने के कारण पहले की तरह लोहड़ी नहीं मनाई जा रही है। क्या कोई पास की नदी में स्नान करके बैसाखी मनाने के बारे में सोच भी सकता है? प्रदूषित पानी, यात्रा का समय और छेड़छाड़ का डर सभी को अपने घरों में ही रहने के लिए मजबूर करता है। यह त्यौहार धीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा है।
यदि कोई रीति-रिवाज नहीं, कोई परंपरा नहीं, कोई पारिवारिक जमावड़ा नहीं, घर में कोई पूजा नहीं, तो किस प्रकार का त्योहार होगा? अव्यवस्थित जीवन शैली लोगों को शनिवार की रात बाहर रहने के लिए मजबूर कर रही है लेकिन वे त्योहारों को कोई महत्व नहीं देते हैं। ऐसा नहीं है कि त्योहार नहीं मनाए जाते हैं, हां नाम मात्र के लिए लोग मनाते हैं, लेकिन त्योहारों को मनाने का तरीका और प्रक्रिया कृत्रिम और नीरस हो गए है। समय बीतने के साथ, लोगों की झोली और कैलंडर में नए त्योहार भी शामिल हो गए हैं जो नए साल का जश्न, क्रिसमस, वेलेंटाइन डे जैसे हैं। लेकिन इन त्योहारों में भी क्या होता है? अगर बड़े होटलों में हैं तो शराब के साथ डिनर और डांस, बस हो गया त्यौहार भी। दरअसल यह तो होना ही था, इसकी शुरुआत संयुक्त परिवार व्यवस्था के टूटने से हुई। नौकरी की तलाश में अन्य स्थानों पर जाने वाले लड़कों और एक काम काजी महिला के साथ शादी करने से उन्हें आर्थिक पहलू, दिन-प्रतिदिन के जीवन और अन्य संबंधित मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। काम का दबाव, छुट्टियों की कम संख्या, दूर की यात्राएँ इसमें शामिल हो गईं और प्रतीकात्मक उत्सव ने इसकी जगह ले ली। अत्यधिक जनसंख्या ने स्थान, आवाजाही, एकांत स्थानों आदि की समस्याएँ भी पैदा कीं। परिणाम यह है कि आजकल त्यौहार तो मनाये जा रहे हैं, परन्तु वे बासी, नीरस और निष्प्राण हो गये हैं। कभी-कभी त्योहारों में कोई ज्यादा फर्क नहीं कर पाता क्योंकि हर त्योहार में बाहर होटल में जा कर खाना, शराब पीना और टीवी देखना अधिकतर हर त्यौहार में होता है। इसलिए त्यौहार अभी भी हैं, लेकिन बिना किसी संस्कार के।

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